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ओशो – भीतर कुछ और बाहर कुछ !

*भीतर कुछ और , बाहर कुछ और..*
एक रात ऐसा हुआ। एक घर में एक मां थी और उसकी बेटी थी। और उन दोनों को रात में उठ कर नींद में चलने की बीमारी और आदत थी। कोई तीन बजे होंगे रात में,तब वह मां उठी और मकान के पीछे बगिया में पहुंच गई। नींद में ही स्लीप वॉकिंग की आदत थी, नींद में चलने की और बात करने की। वह मकान के पीछे बगिया में पहुंच गई। उसकी लड़की भी उठी, और वह भी थोड़ी देर बाद बगिया में पहुंच गई। जैसे ही उस बूढ़ी ने अपनी लड़की को देखा, वह जोर से चिल्लाई. चांडाल, तूने ही मेरी युवा अवस्था छीन ली है। तूने ही मेरी जवानी छीन ली है। तू जब से पैदा हुई तब से मैं की होनी शुरू हो गई। तू मेरी शत्रु है, तू न होती तो मैं अभी भी जवान होती।
उस लड़की ने जैसे ही अपनी बूढ़ी मां को देखा, वह जोर से चिल्लाई कि दुष्ट, तेरे ही कारण मेरा जीवन एक संकट और बंधन बन गया है। मेरे जीवन के हर प्रवाह में तू रोड़े की तरह खड़ी हुई है। मेरे जीवन के लिए तू एक जंजीर बन गई है।
और तभी मुर्गे ने बांग दी और उन दोनों की नींद खुल गई। लड़की को देखते ही कहा. बेटी, इतनी सुबह क्यों उठ आई? कहीं तुझे सर्दी न लग जाए। चल, भीतर चल! और उस लड़की ने जल्दी से अपनी की मां के पैर पड़े। सुबह से पैर पड़ने का उसका रोज का नियम था। और उसने कहा कि मां, तुम इतनी जल्दी उठ आईं? तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं रहती है। इतनी जल्दी नहीं उठना चाहिए। आप चलिए और विश्राम करिए। और नींद में उन्होंने यह कहा और जाग कर उन्होंने यह कहा!
नींद में आदमी जो कहता है वह जागने के बजाय ज्यादा सच्चा होता है, क्योंकि ज्यादा भीतरी होता है। सपने में जो आप देखते हैं, वह आपकी कहीं ज्यादा असलियत है, बजाय उसके जो रोज आप बाजार और भीड़ में देखते हैं। भीड़ का चेहरा बनाया हुआ कृत्रिम चेहरा है। आप अपने गहरे में बिलकुल दूसरे आदमी हैं।
ऊपर से आप कुछ अच्छे अच्छे विचार चिपका कर काम चला लेते हैं, लेकिन भीतर विचारों की आग जल रही है। ऊपर से आप बिलकुल शांत और स्वस्थ मालूम होते हैं,भीतर सब अस्वस्थ और विक्षिप्त है। ऊपर से आप मुस्कुराते मालूम होते हैं, और हो सकता है कि सारी मुस्कुराहट भीतर आंसुओ के ढेर पर खड़ी हो। बल्कि बहुत संभावना यही है कि भीतर जो आंसू हैं, उनको छिपाने के लिए ही मुस्कुराहट का आपने अभ्यास कर लिया हो। आमतौर से आदमी यही करता है।
नीत्शे से किसी ने एक बार पूछा कि तुम हमेशा हंसते रहते हो! इतने प्रसन्न हो! सच में ही क्या? नीत्शे ने कहा अगर तुमने पूछ ही लिया है तो मैं असलियत भी बता दूं। मैं इसलिए हंसता रहता हूं कि कहीं रोने न लग। इसके पहले कि रोना शुरू हो जाए, मैं हंसी से उसको दबा लेता हूं भीतर ही रोक लेता हूं। मेरी हंसी दूसरों को धोखा दे देती होगी कि मैं खुश हूं। और मैं सिर्फ इसलिए हंसता हूं कि मैं इतना दुखी हूं कि हंसने से ही राहत मिल जाती है। अपने को समझा लेता हूं।

बुद्ध को किसी ने हंसते नहीं देखा, महावीर को किसी ने हंसते नहीं देखा, क्राइस्ट को किसी ने हंसते नहीं देखा। कोई बात होनी चाहिए। शायद भीतर अब आंसू नहीं रहे जिन्हें छिपाने के लिए हंसने की जरूरत हो। शायद भीतर दुख नहीं रहा, जिसे ढांकने के लिए मुस्कुराहट सीखनी पड़ती हो। भीतर जो उलटा था, वह विसर्जित हो गया है,इसलिए बाहर अब हंसी के फूल लगाने की कोई जरूरत नहीं रह गई।
जिसके शरीर से दुर्गंध आती हो, उसे सुगंध छिड़कने की जरूरत पड़ती है। और जिसका शरीर कुरूप हो, उसे सुंदर दिखाई पड़ने के लिए चेष्टा करनी पड़ती है। और जो भीतर दुखी है, उसे हंसी सीखनी पड़ती है। और जिसके भीतर आंसू भरे हैं, उसे मुस्कुराहट लानी पड़ती है। और जो भीतर कांटे ही कांटे से भरा है, उसे बाहर से फूल चिपकाने पड़ते हैं।

आदमी बिलकुल वैसा नहीं है जैसा दिखाई पड़ता है, उससे बिलकुल उलटा है। भीतर कुछ और है, बाहर कुछ और है। और यह बाहर जो हमने चिपका लिया है इससे दूसरे धोखे में आ जाते तो भी ठीक था, हम खुद ही धोखे में आ जाते हैं। यह जो बाहर हम दिखाई पड़ते हैं इससे दूसरे लोग धोखे में आते तो ठीक था, वह कोई बड़े आश्चर्य की बात न थी, क्योंकि लोग बाहर से ही देखते हैं। लेकिन हम खुद ही धोखे में आ जाते हैं, क्योंकि हम भी दूसरों की आंखों में अपनी बनी हुई तस्वीर को अपना होना समझ लेते हैं। हम भी दूसरों के जरिए अपने को देखते हैं, कभी सीधा नहीं देखते— जैसा कि मैं हूं- जैसा कि मेरे भीतर मेरा वास्तविक होना है।

 

देह का सम्मान करों ” ~ ओशो : –

” मैं चाहता हूं कि तुम इस सत्य को ठीक-ठीक अपने अंतस्तल की गहराई में उतार लो।
देह का सम्मान करे, अपमान न करना। 
देह को गर्हित न कहना: निंदा न करना। देह तुम्हारा मंदिर है। मंदिर के भीतर देवता भी विराजमान है। मगर मंदिर के बिना देवता भी अधूरा होगा। दोनों साथ है, दोनों समवेत, एक स्वर में आबद्ध, एक लय में लीन। यह अपूर्व आनंद का अवसर है। इस अवसर को तूम खंड सत्यों में न तोड़ो। “

अंतरयात्रा शिविर
ओशो

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