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नीति और धर्म दो विपरीत दिशाएं

मैं नीति और धर्म की दिशाओं को भिन्न मानता हूं; भिन्न ही नहीं, विपरीत मानता हूं—क्यों मानता हूं, उसे समझाना चाहता हूं। नीति-साधना का अर्थ है : आचरण-शुद्धि, व्यवहार-शुद्धि। वह व्यक्तित्व की परिधि—को बदलने का प्रयास है। व्यक्तित्व की परिधि मेरा दूसरों से जो संबंध है, उससे निर्मित होती है। वह दूसरों से मेरा व्यवहार है। मैं दूसरों के साथ कैसा हूं, वही मेरा आचरण है। आचरण यानी संबंध, रिलेशन।मैं अकेला नहीं हूं। मैं अपने चारों ओर अन्य लोगों से घिरा हूं। मैं समाज में हूं और इसलिए प्रतिक्षण किसी न किसी से संबंधित हूं। यह अतर्संबंध ही जीवन मालूम होता है। मेरे संबंध शुभ हैं तो मेरा आचरण सद है, और मेरे संबंध अशुभ हैं तो मेरा आचरण असद है। सदाचरण की हमें शिक्षा दी जाती है। वह समाज के लिए आवश्यक है। वह एक सामाजिक आवश्यकता है।

समाज को आपसे, आपकी निपट निजता में कोई प्रयोजन नहीं है। उस दृष्टि से आप न भी हो तो भी समाज को कोई अर्थ नहीं है। समाज के लिए आप उसी क्षण महत्वपूर्ण हैं, जब आप किसी से संबंधित होते हैं। समाज को आप नहीं, आपका व्यवहार ही मूल्यवान है। आप नहीं, आपका आचरण ही अर्थपूर्ण है। इसलिए समाज की शिक्षा सदाचरण की है तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। मनुष्य उसके लिए आचरण से ज्यादा नहीं है।

पर, समाज की सदाचरण की यह शिक्षा, नैतिक होने का आदेश, एक भ्रांति पैदा करता है। एक बहुत आधारभूत भ्रांति का इससे जन्म हुआ है। स्वाभाविक ही जो प्रभु में और धर्म में उत्सुक होते हैं, वे सोचते हैं कि सत्य को पाने को सद होना आवश्यक है। सदाचरण की भूमिका में ही प्रभु-अनुभूति संभव होगी। सत्य के आगमन के पूर्व शुभ होना होगा। धर्मानुभूति नैतिक जीवन से ही निकलेगी और विकसित होगी। नीति आधार है, धर्म शिखर होगा। यह वस्तुस्थिति को बिलकुल उलटा करके देखना है। सत्य कुछ और ही है।

नीति की दिशा किसी व्यक्ति को वस्तुतः तो नैतिक भी नहीं बना पाती है, धार्मिक बनाने का तो प्रश्न ही नहीं है। व्यक्ति उससे केवल सामाजिक बन सकता है। और सामाजिक को नैतिक समझ लिया जाता है। आचरण मात्र ठीक होने से कोई वस्तुतः नैतिक नहीं होता है। उस क्रांति के लिए अंतस का परिशुद्ध होना आवश्यक है।

अंतस को बदले बिना आचरण नहीं बदल सकता है।

केंद्र को, मूल को बदले बिना परिधि को बदलने का प्रयास केवल एक निरर्थक स्वप्न है। वह प्रयास मात्र व्यर्थ ही नहीं, घातक भी है। वह आत्म-हिंसा है। ऐसी चेष्टा अपने ऊपर जबरदस्ती आरोपण के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। इस दमन में समाज की उपयोगिता तो सध जाती है, पर व्यक्ति टूट जाता और खंडित हो जाता है। उसके भीतर द्वैत पैदा हो जाता है। उसका व्यक्तित्व सहजता और सरलता खोकर एक अंतर्द्वंद्व, कान्फ्लिक्ट बन जाता है—एक सतत संघर्ष, एक अंतहीन अंतर्युद्ध—जिसके अंत में विजय कभी नहीं आती है। यह व्यक्ति के मूल्य पर सामाजिक उपयोगिता को पूरा कर लेना है। इसे मैं सामाजिक हिंसा कहता हूं।

मनुष्य के आचरण में जो कुछ प्रकट होता है, वह महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण अंतस के वे कारण हैं, जिनकी वजह से वह प्रकट होता है। आचरण अंतस की सूचना है, मूल वह नहीं है। आचरण अंतस का बाह्य प्रकाशन है। और वे लोग नासमझ हैं, जो प्रकाशक को बदले बिना प्रकाशन को बदलने की आकांक्षा करते हैं।

उस तरह की साधना व्यर्थ है। वह कभी फलवती नहीं होगी। वह ऐसे ही है जैसे कोई किसी वृक्ष की शाखाओं को छांटकर उसे नष्ट करना चाहता हो। उससे वृक्ष नष्ट तो नहीं और सघन अवश्य हो सकता है। वृक्ष के प्राण शाखाओं में नही हैं, वे तो जड़ों में हैं, उन जड़ों में जो कि भूमि के अंतर्गत हैं और दिखायी नहीं पड़ती हैं। उस जड़ों की प्रसुप्त आकांक्षाएं ही वृक्ष के रूप में प्रकट हुई हैं। उन जड़ों की आकांक्षाओं और वासनाओं ने ही शाखाओं का रूप लिया है। शाखाओं के छांटने से क्या होगा?…वस्तुतः ही यदि जीवन क्रांति चाहते हैं, तो जड़ों तक चलना जरूरी है।

मनुष्य के आचरण की जड़ें, रूट्स अंतस में हैं। आचरण अंतस का अनुगामी है, उसका अग्रगामी नहीं। इसलिए आचरण को बदलने का प्रयत्न दमन, सप्रेशन के अतिरिक्त और क्या हो सकता है? और दमन क्या कोई परिवर्तन ला सकता है? दमन का क्या अर्थ है? दमन का अर्थ है, जो हमारे अंतस से सहज उठता है उसे उठने न दें, और जो नहीं उठता है उसे बलपूर्वक उठावें और प्रकट करें।

जो हम दबा देंगे वह कहां जायेगा? क्या हम उससे मुक्त हो जायेंगे? दमन से मुक्ति कैसे आयेगी? वह तो हमारे भीतर ही बना रहेगा! यद्यपि अब उसे अपने जीवन के लिए और गहरे अंधेरे और अचेतन, अनकांशस तल खोजने पड़ेंगे। वह और गहरी गहराइयों में प्रविष्ट हो जायेगा। वह वहां छिपा रहेगा जहां हमारी दमन की चेतन आंखें उसे खोज न पावें। पर, गहरी बैठ गयी इन जड़ों के अंकुर तो फूटते ही रहेंगे—शाखाएं तो पल्लवित होती ही रहेंगी—और तब हमारे चेतन, कांशस और अचेतन, अनकांशस के मध्य एक ऐसे संघर्ष की शुरुआत हो जायेगी, जिसकी परिसमाप्ति केवल विक्षिप्तता में ही हो सकती है। विक्षिप्तता, हमारी तथाकथित और थोथी नैतिकता पर खड़ी सभ्यता का परिणाम है। इसलिए जितनी सभ्यता, सिविलाइजेशन बढ़ती है, उतनी ही विक्षिप्तता बढ़ती है। और यह हो सकता है कि एक दिन हमारी पूरी सभ्यता विक्षिप्तता में परिणत हो जावे। विगत दो महायुद्ध इसी तरह की विक्षिप्तताएं, मेडनेस थे, और अब तीसरे और अंतिम की तैयारी चल रही है।

मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन में जो विस्फोट होते हैं वे—और सामूहिक जीवन में भी हिंसा, बलात्कार, अनैतिकता और पाश्विकता के जो विस्फोट होते हैं वे—सभी दमन के परिणाम हैं। दमन के कारण मनुष्य सहज और सरल नहीं हो पाता है। फिर दमन का तनाव एक दिन उसे तोड़ ही देता है।

हां, एक तीसरा विकल्प भी है। वह है पशु जैसे होने का। अपराधी का जन्म उस विकल्प से होता है। उससे हम बचना चाहते हैं। पशु होने से हम बचना चाहते हैं तो हमारी सभ्यता उपरोक्त दो विकल्प देती है।

पशु होने का अर्थ है अपने को अचेतन प्रवृत्तियों, इंस्टिंक्ट्स के हाथ में पूर्णतया सौंप देना। यह भी असंभव है, क्योंकि जो अंश मनुष्य में चेतन हो गया है, वह अचेतन नहीं हो सकता है।

नशे में हम उसी अचेतना को खोजते हैं। नशे की तलाश पशु होने की आकांक्षा का प्रतीक है। पूर्ण बेहोशी में ही मनुष्य प्रकृति के, पशु के बिलकुल अनुकूल हो सकता है। पर वह तो मृत्यु के ही तुल्य है। यह सत्य विचारणीय है—बहुत विचारणीय है, मनुष्य बेहोशी में पशु कैसे हो जाता है? और उसे पशु होना हो तो बेहोशी की खोज क्यों करता है? यह सत्य इस बात की सूचना है कि मनुष्य में जो चेतना है, वह पशु-जगत का अंश नहीं है, वह प्रकृति का अंश नही है।

फिर हम क्या करें ? हमारी सभ्यता तीन विकल्प देती है: पशु का विकल्प, पागल का विकल्प, पाखंड का विकल्प । क्या कोई चौथा विकल्प भी है?

मैं उस चौथे विकल्प को ही धर्म कहता हूं। वह पशु का, पागल का, पाखंड का नहीं, प्रज्ञा का मार्ग है। वह भोग का, दमन का, मिथ्याभिनय का नहीं, वास्तविक जीवन और ज्ञान का मार्ग है। उसके परिणाम में सदाचरण के फूल लगते हैं। उसके परिणाम में व्यक्ति का पशु विसर्जित होता है। अचेतन वासनाओं का दमन नहीं, उनसे मुक्ति होती है। और सदाचरण का अभिनय नहीं, वास्तविक जीवन पैदा होता है। वह किसी आवरण को, आचरण को ओ.ढना नहीं है—वह अंतस की क्रांति है। वह समाज का नहीं, स्वयं का समाधान है। वह हमारे संबंधों को नहीं, स्वयं हमें बदल देता है। और तब संबंध तो अपने आप बदल जाते हैं। वह हमारी निपट निजता में—वह जो मैं अपने आप में हूं—वहां क्रांति ला देता है। और तब शेष सब अपने आप परिवर्तित हो जाता है।

ओशो, साधना पथ, # 5

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