सचेत हो जाओ! सम्बन्ध प्रेम को नष्ट कर देता है, वह उसके जन्म की सारी संभावनाओं को नष्ट कर देता है।

सम्बन्ध

सम्बन्ध एक ढांचा है, प्रेम का कोई ढांचा नहीं है। तो प्रेम सम्बंधित तो अवश्य होता है, पर कभी सम्बन्ध नहीं बनता। प्रेम एक क्षण-से-क्षण की प्रक्रिया है। स्मरण रखें। प्रेम तुम्हारे होने कि स्तिथि है, वह कोई सम्बन्ध नहीं। ऐसे लोग हैं जो प्रेम करते हैं और ऐसे भी जो प्रेम नहीं करते। जो लोग प्रेम नहीं करते वे संबंधो के माध्यम से प्रेममय होने का नाटक करते हैं। प्रेम करने वाले लोगों को सम्बन्ध बनाने की कोई आवश्यकता नहीं होती– प्रेम पर्याप्त है।

एक प्रेम सम्बन्ध में पड़ने के बजाय तुम एक प्रेम करने वाले व्यक्ति बनो–क्योंकि सम्बन्ध एक दिन बनते हैं और अगले ही दिन मिट जाते हैं। वे फूलों के सामान हैं; सुबह खिलते हैं, और श्याम ढलते ही विदा हो जाते हैं।

तुम एक प्रेममय व्यक्ती बनो, मंत्रा।

परन्तु लोगों को प्रेममय व्यक्ती बनने में बहुत कठिनाई होती है, तो वे एक सम्बन्ध खड़ा कर लेते हैं– और इस तरह से बेफकूफ बनाते है “मैं एक सम्बन्ध में हूँ इसलिए मैं अब एक प्रेममय व्याक्ति हूँ।” और वह सम्बन्ध चाहे किसी पर एकाधिकार ज़माने वाला, सबसे अलग कर देने वाला हो।

हो सकता है वो सम्बन्ध बस किसी डर से बनाया गया हो, जिसका प्रेम से कुछ लेना-देना न हो। हो सकता है सम्बन्ध मात्र एक सुरक्षा हो–आर्थिक या कोई और। सम्बन्ध की आवश्यकता केवल इसलिए होती है क्योंकि प्रेम नहीं है। सम्बन्ध एक विकल्प है।

सचेत हो जाओ! सम्बन्ध प्रेम को नष्ट कर देता है, वह उसके जन्म की सारी संभावनाओं को नष्ट कर देता है।

 

यदि तुम बिना इर्ष्य के प्रेम कर सकते हो, यदि तुम बिना लगाव के प्रेम कर सकते हो, यदि तुम किसि व्यक्ति को इतना प्रेम कर सको की उसक प्रसन्नता तुम्हारी प्रसन्नता हो….भले ही वह किसि और स्त्री के साथ भी हो और प्रसन्न हो, यह तुम्हे भी प्रसन्न कर दे किऊंकी तुम उससे इतना प्रेम करती हो: उसकी ख़ुशी तुम्हारी ख़ुशी है तुम इस लिय खुश हो किउंकि वह खुश है, और तुम उस स्त्री के प्रति अनुग्रहित होगी जिसने उस व्यक्ती को प्रसन्नकिया जिसे तुम प्रेम करती हो–तुम इर्ष्या नहीं करोगी। तब प्रेम एक शुद्धता तक पहुंचा है।

यह प्रेम किसी तरह का बंधन निर्मित नहीं करता। और यह प्रेम केवल, तुम्हारे ह्रदय के द्वार का खुलना है- सब हवाओं के लिए, पूरे आकाश के लिए। यह थोड़ा विचित्र दिखता है; परन्तु हमें हमेशा यह सिखाया गया है कि प्रेम एक सम्बन्ध है, तो हम इस सोच के आदि हो गए हैं कि प्रेम एक सम्बन्ध है। परन्तु यह सत्य नहीं है। यह निम्नतम प्रकार का प्रेम है– बहुत प्रदूषित।

स्वतंत्रता मनुष्य की परम इच्छा है। स्वतंत्रता में ही मनुष्य अपनी खिलावट में आता है। ध्यान स्वतंत्रता लाएगा।

और मैं प्रेम के विरोध में नहीं हूँ; यह बस स्वतंत्रता से एक कदम नीचे है, और तुम्हारे आस-पास एक खुशबू की तरह प्रेम की उपस्थिति होना बहुत सुन्दर होता है। स्वतंत्रता को तुम्हारा केंद्र और प्रेम को तुम्हारी परिधि बन जाने दो, और तुम एक सम्पूर्ण आस्तित्व हो जाओगे।

परन्तु सम्बन्ध कभी काम नहीं करते। तुम मुझसे पूछ रहे हो: “दो व्यक्ति कैसे एक दुसरे के लिए प्रतिबद्ध हो सकते हैं?” वे नहीं हो सकते। प्रतिबद्धता आस्तित्व के प्रति होती है, न की एक दुसरे के लिए। प्रतिबद्धता केवल पूर्ण के प्रति हो सकती है न कि एक दुसरे के लिए।

“एक संबंद्ध कैसे काम करता है?” तुम पूछते हो। यह काम नहीं करता- और तुम यह सब तरफ देख सकते हो। यह केवल इसका ढोंग करता है। लोग कहते फिरते हैं, सब-कुछ ठीक है, सब-कुछ अच्छा है। अपना दुःख दिखाने में क्या सार है? अपने घाव दिखाने में क्या सार है? व्यक्ति उनको छिपाए जाता है। अपने दुःख दिखाना अपमानजनक लगता है, तो लोग दिखावा करते हैं कि सब कुछ बहुत अच्छा चल रहा है। वे मुस्कुराते रहते हैं, वे अपने ओसुओं कोदबाते जाते हैं।

एसा बोला जाता है कि फ्रेडरिक नीत्शे ने कहा है, “मैं केवल इस कारण हँसता मुस्कुराता रहता हूँ कि यदि मैं ना मुस्कुराऊं तो संभवत मैं रोना शुरू करदूंगा।” हँसना अपने आंसूओं को छिपाने का तरीका है: तुम अपनी ऊर्जा को आंसूओं से मुस्कराहट में बदल देते हो ताकि तुम अपने आसूओं को भुला सको। परन्तु सभी आंसूओं से भरे हैं।

मैंने अनेक लोगों के जीवन में झाँक कर देखा है, उनके संबंधों में। वे सब दुःख हैं, परन्तु वे उसे छिपा रहे हैं, सब-कुछ ठीक होने का नाटक करते हुए। एक सम्बन्ध कार्यात्मक नहीं होता, हो नहीं सकता।

और तुम कहते हो: “मैं प्रतिबद्धता से डरता हूँ, इसलिए मैं संबंधों को टालता रहता हूँ।“ तुमहरा प्रतिबद्धता से डरना बिलकुल सही है, और संबंधो से बचने की कोशिश में भी तुम बिलकुल सही हो, परन्तु सम्बंधित होने से मत बचो। कोई विशिष्ट सम्बन्ध ना बनाएं, मैत्रीपूर्ण बने. प्रेम को मैत्री कि उचाई तक उठने दो. इसे अपना गुण बन जाने दो। प्रेमपूर्वक बनो। इसे सम्बन्ध न बनाओ, बस प्रेमपूर्वक हो जाओ।

यह तीन तल हैं। सम्बन्ध इन सब से नीचा तल है, वह पाशविक है। प्रेम तुम्हारे होने का गुण है। जैसे तुम सांस लेते हो प्रेम को भी वैसे ही होने दो, वह मानवीय है। और प्रेम अपनी परम अभिव्यक्ति में एक गुण भी नहीं है, तुम खुद प्रेम बन जाते हो। तब यह सांस की तरह भी नहीं होता, यह तुम्हारा होना होता है; तब यह अध्यात्मिक होता है। परन्तु तीसरी सम्भावना ध्यान के द्वारा ही घट सकती है। वह विशुद्धि तभी संभव है जब तुम्हारी ऊर्जा ध्यान की पूरी कीमिया से गुज़र जाए।

जब तक तुम सम्बुद्ध नहीं हो, विवाहेतर सम्बन्ध अच्छे हैं। तो कृपया सम्बुद्ध होने से पहले जितने हो सकें उतने विवाहेतर सम्बन्ध बना लो, क्योंकि यदि एक बार तुम सम्बुद्ध हो गए तब मैं तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकूंगा! तब तुम ख़त्म हो गए।

कभी-कभार बस एक नई स्त्री का का ज़रा सा स्वाद, एक नया पुरुष तुम्हारे पुराने स्त्री या पुरुष में फिर से रुचि पैदा कर देता है। तुम सोचने लगते हो, “आखिरकार वह इतनी बुरी नहीं है।” थोडा सा बदलाव हमेशा अच्छा होता है।

मैं विवाहेतर संबंधो के विरोध में नहीं हूँ। जो लोग इसके विरुद्ध हैं वे तुम्हे वास्तविकता में अप्रत्यक्ष रूप से अधिकार ज़माना सिखा रहें हैं। जब मैं कहता हूँ कि मैं विवाहेतर संबंधो के विरुद्ध नहीं हूँ तब मैं तुम्हे सिखा रहा हूँ कि तुम किसी पर अपना अधिकार ना जमाओ। इस तर्क को जरा देखो: जब मैं गैर-अधिकार की बात करता हूँ लोग सोचते हैं, “यह अध्यात्मिक है, यह क है–यह महान है!” परन्तु यदि मैं विवाहेतर सम्बंद्धों की बात करता हूं तब तथाकथित अध्यात्मिक और धार्मिक लोग तुरंत बुरा मान जाते हैं।

परन्तु बात मैं वही कह रहा हूं। गैर-अधिकार होने की बात करना भावात्मक है; विवाहेतर संबंधो की बात करना ठोस है। और तुम भावात्मकता में नहीं रह सकते, तुम्हे ठोस जीवन जीना है। और यह क्या गलत कर सकता है? यदि कोई व्यक्ति एक ही औरत से थक चूका है- वही रूपरेखा, वही भूगोल, वही नक्षा– कभी कभार कुछ अलग भूगोल, कुछ थोड़ा अलग भू-दृश्य…और फिर उसी पुराने नक़्शे को उघाड़ने वह घर लौट आता है। उससे एक अवकाश मिलता है–एक “कॉफ़ी-ब्रेक”। और हर कॉफ़ी ब्रेक के बाद तुम उसी काम में फिर सलंग्न हो सकते हो, उन्ही फाइलों में, तुम उन्हें खोलते हो और काम चालू कर देते हो…कॉफ़ी-ब्रेक तुम्हारी मदद करती है।

मैं नहीं चाहता कि लोग असंभव आदर्शों में रुचि लें। मैं बिलकुल आदर्शवादी नहीं हूँ। मैं एक नैसर्गिक, व्यवहारिक, और यथार्थवादी व्यक्ति हूँ।

यदि लोग एक साथ गहरी आत्मीयता में रहना चाहते हैं, तो उन्हें अधिकार ज़माना बंद करना होगा। उन्हें एक-दुसरे को स्वतंत्रता देनी होगी। और यही है एक विवाहेतर संबंध– स्वतन्त्रता।

संबंध सुन्दर होता है क्योंकि वह एक दर्पण है। परन्तु यहाँ बेवकूफ लोग हैं जो अपना चेहरा दर्पण में देखते हैं और उसकी कुरूपता देख कर दर्पण को ही नष्ट कर देते हैं। कारण स्पष्ट है: यह दर्पण उन्हें कुरूप बना रहा है, तो दर्पण को नष्ट कर के वे फिर सुन्दर हो जाते हैं।

संबंध एक दर्पण होता हैं। जब भी तुम किसी व्यक्ति से सम्बंधित होते हो– पत्नी, पति, कोई दोस्त, कोई प्रेमी या फिर कोई क्षत्रु–तब वह एक दर्पण है। एक पत्नी अपने पती के लिए दर्पण का काम करती है। तुम खुद को उसमे देख सकते हो। और यदि तुम्हे उसमे कोई कुरूप पति दिखाई देता है तो अपनी पत्नी को छोड़ देने की चेष्ठा मत करना–कुरूपता तुम्हारे भीतर है। उस कुरूपता को गिरा दो। दर्पण सुन्दर है; उस दर्पण को धन्यवाद दो।

परन्तु मूढ़ और कायर व्यक्ति सदा भाग जाते हैं और त्याग देते हैं; हिम्मतवर और समझदार सदा संबंधों में रहते हैं और दर्पण की तरह उनका प्रयोग करते हैं। किसी के साथ रहना तुम्हारे आस-पास निरंतर दर्पण का काम करता है। दूसरा हर क्षण तुम्हे उघाड़ता है, तुम्हे उजागर करता है। सम्बन्ध जितना समीप होता है दर्पण उतना ही स्पष्ट होता है; संबंध जितना दूर होता है दर्पण उतना ही अस्पष्ट होता है।

जिओ, और इतना पूर्णता से जिओ कि तुम स्वयं के संपर्क में आ जाओ। और अपने संपर्क में आने के लिए कोई और मार्ग नहीं है। जितना गहरे तुम जीते हो, उतना गहरे तुम स्वयं को जानते हो, किसी संबंध में, अकेलेपन में। जितना गहरे तुम संबंध में जाते हो, प्रेम में जाते हो, तुम्हारी समझ उतनी गहरी होती है। प्रेम एक दर्पण बन जाता है। और जिसने कभी प्रेम नहीं किया है वह कभी भी अकेला नहीं हो सकता, ज़ियादा से ज़ियादा उसे अकेलेपन का अनुभाव हो सकता है।

जिस व्यक्ति ने प्रेम किया है और किसी सम्बन्ध को जाना है, अकेला रह सकता है। अब उसका एकांत एक अलग गुणधर्म लिए है, वह अकेलापन नहीं है। उसने एक संबंध को जीया है, अपने प्रेम को परिपूर्ण किया है, दुसरे को जाना है, और दुसरे के माध्यम से स्वयं को जाना है। अब वह स्वयं को सीधा-सीधा जान सकता है, अब किसी दर्पण की आवश्यकता नहीं। किसी ऐसे व्यक्ति के बारे में सोचे जो कभी भी दर्पण के सामने ना गया हो। क्या वह अपनी आँखे बंद करके स्वयं को देख सकता है? यह असंभव है। वह अपने चेहरे की कल्पना भी नहीं कर सकता। वह उस पर ध्यान नहीं कर सकता। परन्तु जिस व्यक्ति ने दर्पण के समीप आ कर, उसमें झाँका है, उसके माध्यम से अपने चेहरे को जाना है, वह अपनी आँखे बंद करके भीतर का चेहरा देख सकता है। यही तो एक संबंध में होता है। जब कोई व्यक्ति एक सम्बन्ध में जाता है, वह सम्बन्ध एक दर्पण बन जाता है और उसे प्रक्षेपित करता है, और उसे स्वयं के बारे में बहुत सी बातें समझ में आती हैं जिनका उसे कभी ज्ञात न था।

दुसरे के द्वारा उसे अपने क्रोध, अपने लोभ, अपनी इर्ष्या, अपने मालकियत करने वाले स्वभाव, अपनी करुणा, अपने प्रेम और अपने चित्त के हजार तरह के भाव। कई तरह के वातावरण जिनका सामना वह दूसरों के द्वारा करता है। धीरे-धीरेएक क्षण आता है जब वह अकेला हो सकता है; वह अपनी आँख बंद करके खुद की चेतना को सीधे-सीधे देख सकता है। इसीलिए मैं कहता हूँ कि जिन लोगों ने कभी प्रेम नहीं किया उनके लिए ध्यान अत्यंत कठिन है।

जिन लोगो ने गहरा प्रेम किया है वे गहरे ध्यानी बन सकते हैं; जिन लोगों ने संबंधों में प्रेम किया है वे अब इस स्थिति में हैं कि वे स्वयं के साथ अकेले हो सकें। अब वे परिपक्व हो गए हैं, अब दुसरे की आवश्यकता नहीं है। यदि दूसरा उपस्थित है तब वे प्रेम बाँट सकते हैं, परन्तु आवश्यकता समाप्त हो चुकी है; अब वे दुसरे पर निर्भर नहीं है।

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