“प्रभु कृपा का एहसास कैसे हो?” – मा ओशो प्रिया

प्रश्न:भक्तगण कहते हैं परमात्मा सर्वत्र है। उसकी मेहरबानी सदा बरस ही रही है। फिर भी सब लोगों को प्रभु कृपा का एहसास क्यों नहीं होता? ईश्वर के प्रति श्रद्धा, भक्ति, शुक्रगुजारी कैसे जन्में? कृपया समझाने की अनुकंपा करें।

मेरे प्रिय आत्मन् नमस्कार।

परमात्मा में हम हैं, परमात्मा से बिल्कुल दूरी नहीं है। उसी में पैदा हुए हैं, उसी में जी रहे हैं तो पता नहीं चलता उसका। वायुमंडल का ही उदाहरण ले लो। चारों तरफ से हम उससे घिरे हुए हैं, क्या उसका एहसास होता है हमें? पता चलता है? नहीं चलता पता। ऐसे ही परमात्मा से हम घिरे हुए हैं, परमात्मा का पता नहीं चलता। तो उसके कृपा का भी पता नहीं चलता।

तो भक्ति जिस दिन घटित होगी उस दिन पता चलेगा। जैसे हम किसी के प्रेम में होते हैं, तो वह व्यक्ति आपको सिर्फ फूल लाकर दे तो आपके लिए बहुत बड़ी संपदा हो गई वह। आपका जीवन ही खिल जाता है। आपका जीवन ही उस फूल के सुगंध से भर जाता है और प्रेम जब संबंध बन जाता है तो क्या कुछ नहीं किया जाता एक दूसरे के लिए? क्या पता चलता है? क्या हम धन्यवाद से भरते हैं? क्या कुछ एहसास हो पाता है फिर? नहीं हो पाता। प्रेम में एहसास हो रहा था कि अगला व्यक्ति हमारे लिए क्या कर रहा है? संबंध बना एहसास खतम हो गया।

हमारे शरीर में स्वास्थ है, हम इस संसार में जी पा रहे हैं भली-भांति। क्या-क्या खजाना दिया है इस शरीर में प्रभु ने? परमात्मा का द्वार भी दिया है इसी के भीतर। इसी घट के भीतर, इसी देह के भीतर सब कुछ उसने दे दिया। और चैतन्य भी दिया जो कि सब कुछ महसूस करता है। वह अंतर्यामी यहीं बैठा हुआ है आकर और क्या चाहिए? तो कितनी बड़ी कृपा है उसकी। हमें क्यों कृपा महसूस नहीं होती? क्योंकि अभी हम भक्त नहीं हुए। भक्ति आई नहीं है अभी।

इसको ऐसे समझो। भक्ति क्या है? कैसे हम परमात्मा के कितने-कितने निकट हो गए, कितने हम करीब होते जा रहे हैं परमात्मा के यह भक्ति है। हमारी दूरी, हमारा फैसला परमात्मा से कम होता जा रहा है। एक बच्चा है वह अपने माता-पिता के पास बड़ा होता है। माता-पिता क्या कुछ नहीं करते बच्चे के लिए? आप सभी माता-पिता हैं, जानते हैं। लेकिन बच्चे बड़े होकर या उस समय क्या वह धन्यवाद महसूस करते हैं? क्या वह कृपा महसूस करते हैं माता-पिता के कि नहीं करते। करते हैं क्या? नहीं करते। क्योंकि वह इतने शुरू से साथ रहते हैं, वहीं जन्म लिया साथ रहते-रहते वह संवेदना ही नहीं है। लेकिन वह एहसास ही नहीं बचा। क्योंकि वह अधिकार मान लेते हैं। साथ रहते-रहते उनका अधिकार है वह, तो कृपा महसूस नहीं करते। और जहां एक्सपेक्टेशन है, जहां अधिकार की भावना आई वहां संवेदना कम हो गई। वहां हमारा ध्यान कम हो गया। एहसास करने की क्षमता कम हो गई।

तो ऐसा समझो कि कोई पहचान का व्यक्ति या कोई राहगीर आपके लिए थोड़ा सा कुछ कर दे, आपकी कोई चीज गिर गई और वह उठाकर दे दे। आप कितना धन्यवाद महसूस करते हैं। या कोई पहचान का व्यक्ति है, आपके लिए थोड़ा सा कुछ हैल्प कर दिया आप कितना ज्यादा महसूस करते हो और वही काम माता-पिता करते हैं, यही काम भाई-बहन करते हैं वह महसूस नहीं कर पाते। क्यों? क्योंकि उनके साथ रहते-रहते हमें पता ही नहीं चलता। ऐसे तो परमात्मा में हम हैं। परमात्मा में हम हैं, तो इसलिए हमें पता ही नहीं चलता कि परमात्मा हमारे लिए क्या कर रहा? तो अब और आगे बढ़ो कि यही प्रेम जब श्रद्धा बनता है। गुरु के पास जब हम जाते हैं, तो गुरु जब एक बार एक नजर देख ले वह जिंदगी भर के लिए काफी है। उसका उजाला, वह रोशनी, वह जिंदगी भर के लिए काफी है। वह नजरे हम कभी भूल नहीं सकते। वह हमारे जीवन के लिए दीपक बन गई। हमारे जीवन में उजियारा कर गई। लोग फिर गुरु के पास सेवा करने लगे, पास रहने लगे, संवेदनशीलता खतम होती जाएगी एक्सपेक्टेशन बढ़ते जाएंगे। अब गुरु ने हमारी ओर देखा नहीं। दूसरे की ओर ज्यादा कुछ किया यही दिखाई देने लगेगा। श्रद्धा में गुरु की एक नजर काफी थी।

जब भक्ति हुई तो पूरा अस्तित्त्व हमारे लिए क्या कर रहा है यह दिखाई देता है। अभी हमें क्या दिखाई देता है? क्या नहीं हुआ हमारे जीवन में। क्या दूसरे के जीवन में हुआ यह दिखाई देता है। फिर क्या दिखाई देता है? कितना हो रहा है हम इसका भोग ही नहीं कर पा रहे। जितना प्रभु दे रहा है उसका हम भोग ही नहीं कर पा रहे। और अहोभाव इतना घनीभूत हो जाता है कि हे प्रभु हमें इतनी क्षमता दो आप जो बरसा रहे हो इसे हम आत्मसात कर पाएं। इसे हम जी पाएं। इतने संवेदनशीलता हमारे बढ़ाते जाओ।

एक कथा है। ओशो इस कथा को सुनाते हैं कि एक राजा है। महमूद उसका नौकर है। वह नौकर बहुत प्यारा है राजा को। और राजा की आदत है कि जो कुछ भी खाता था पहले वह उस गुलाम को देता था। फल खाता था तो पहले फल की एक कली अपने नौकर को देता था, गुलाम को देता था। एक बार दोनों सैर करने गए। राजा भटक गया। दोनों भटक गए जंगल में। पूरा दिन निकल गया भोजन नहीं मिला, भूखे थे दोनों। अंत में एक जगह एक छोटा सा फल। पेड़ में मात्र एक फल लगा हुआ था। उस फल पर राजा की नजर पड़ी। उसे तोड़ा गया। उसे काट कर राजा पहले अपने नौकर महमूद को दिया। महमूद ने खाया। कहा एक कली और दें प्रभु। एक कली और दी। फिर तीसरी कली की भी याचना करने लगा। चार ही कली बनती थी उसकी। तीसरी कली भी उसने बहुत गिड़गिड़ा कर मांग ली। राजा ने सोचा ठीक है। इतना प्यारा, इतना सेवा करने वाला, इतना ख्याल रखने वाला मेरा यह प्यारा गुलाम है। इसे मैं तीसरी कली भी देता हूं।

फिर चौथी कली की बारी आई… राजा के मन में विचार आ तो गया कि किस तरह का व्यवहार कर रहा है? आज तक तो कभी ऐसा किया नहीं इसने। चौथी कली खुद राजा ने खाने ही वाला था कि यह मांगे न इसके पहले मैं खा लूं। उसने झपटने लगा नौकर और छीनने लगा उसके फल को। राजा क्रोधित हो गया। उसने वापस उसका हाथ हटा लिया। बोला तुम इसके आगे बढ़े तो मैं तुम्हारा सिर अलग कर दूंगा। क्यों कर रहे हो तुम ऐसा। लेकिन वह नहीं माना और राजा ने तुरंत फल अपने मुंह में डाल लिया। और देखा तो यह तो इतना कड़वा जहर जैसा। राजा बोला पागल तुम बोले क्यों नहीं कि यह फल तो विशैला है। इतना कड़वा। इतना तिक्त! तुम क्यों खाए इसको? तो महमूद बोला सरकार आपने पूरी जिंदगी इतने मीठे फल इन हाथों से खिलाए और अगर मैं आज कह दूं, आज पहली बार कड़वा फल आपके हाथों से आया तो मैं कैसे कह दूं? तो कैसे शिकायत कर दूं? तुमने मुंह भी नहीं बनाए, तुम्हारे एक्सप्रेशन भी नहीं आए। तो बोला अगर एक्सप्रेशन आ जाते तो मुक भाशा में तो मैंने कह ही दिया होता।

तुम सोचो उस दिन उस महमूद की जगह राजा के हृदय में कितनी और ज्यादा हो गई होगी। कितना और करीब हो गया होगा वह महमूद। ऐसे ही जब भक्ति फलित होती है, तो जीवन में जो भी घटता है, उसके लिए हमें सोचना नहीं पड़ता। सहज रूप से अहोभाव। सहज रूप से धन्यवाद भाव इस जीवन में आते रहते हैं। यह हमारे जीवन की शैली बन जाती है। धन्यवाद भाव में जीना, अहोभाव में जीना। क्यों? क्योंकि उसकी कृपा का एहसास हम भूल नहीं पाते। उसकी कृपा निरंतर बरस रही है।

दयारे सुबहो-शाम जिसके इशारे पर है,

मेरी गफलत तो देखो- मैं उसे गाफिल समझता हूं।

इतना वह ख्याल रखता है। छोटी-छोटी सी बातों का ख्याल रखता है। लेकिन वह एक शैली होती है। वह जीवन में अगर भक्ति अवतरित हो जाए तो यह आंखे, यह संवेदना पैदा हो जाती है और तब पता चलता है। घटना का क्रम वही रहता है जो हमारे जीवन में है वह संत के जीवन में है। लेकिन संत की देखने का नजरिया बदल जाता है। देखने का ढंग बदल जाता है। और हमारे देखने का ढंग कुछ और होता है। तो चलो इस गीत को हम सब मिलकर गाते हैं जिसमें कि कृपा का एहसास है।

जमीं पे ये रोशन जन्नत न होती।

मेहरबान ओशो अगर तुम न होते।।

बया-बां में चलते चले जा रहे थे।

हमें गम के कांटे चुभे जा रहे थे।।

उजालों की हम पर ये बारिश न होती।

मेहरबान ओशो अगर तुम न होते।।

कहां महकती ये जीवन की गलियां।

कभी खिल न पाती गुलाबों की कलियां।।

मेरे मन की मालिन तो कांटे ही बोती।

मेहरबान ओशो अगर तुम न होते।।

कभी बूंद मेरी न सागर में खोती।

मेरी जिंदगी इक इबादत न होती।।

कभी हम पे जाहिर हकीकत न होती।

मेहरबान ओशो अगर तुम न होते।।

यह परम गुरु ओशो की मेहरबानी है कि उन्होंने आधुनिक जगत को ‘मेहरबानी’की महत्ता समझाने की मेहरबानी की। ‘एक ओंकार सतनाम’में नानक देव जी के शबद को समझाते हुए ओशो कहते हैं-

अगर तुम देखो तो जो तुम्हें जो मिला है वह अपरंपार है। परमात्मा का दान, उसका प्रसाद है। प्रसाद को देखना सूक्ष्म बात है। वह कोड़े की छाया को देखना है। उसे दिखायी पड़ रहा है कि अहर्निश उसका दान मिल रहा है। मांगने को और बचा क्या है? मांगना क्या है! सिर्फ उसे धन्यवाद देना है।’

इसलिए परम भक्त मंदिर धन्यवाद देने जाता है, मांगने नहीं। उसकी कोई मांग ही नहीं है। अगर परमात्मा सामने खड़ा होकर भी उसको कहे कि तू कुछ मांग ले, तो भी वह मांगेगा नहीं। क्योंकि वह कहेगा, सब दिया ही हुआ है। सब पहले से ही जरूरत से ज्यादा दिया हुआ है। मेरी योग्यता से ज्यादा तुमने मुझे पहले ही दिया हुआ है। किस मुंह से मांगूं! और मांगने में तो शिकायत होगी कि तुमने कुछ कम दिया है।

तुम्हें जीवन मिला है, यह क्या कम है? लेकिन जीवन की तुम कोई कीमत नहीं करते।

मैंने सुना है कि एक कंजूस..महाकंजूस..की मौत करीब आयी। उसने करोड़ों रुपए इकट्ठे कर रखे थे। और वह सोच रहा था कि आज नहीं कल जीवन को भोगूंगा। लेकिन इकट्ठा करने में सारा समय चला गया; जैसा कि सदा ही होता है। जब मौत ने दस्तक दी, तब वह घबड़ाया कि समय तो चूक गया। धन भी इकट्ठा हो गया, लेकिन भोग तो मैं पाया नहीं। सोच ही रहा था कि भोगना है। यह तो वह जिंदगी भर से सोच रहा था और स्थगित कर रहा था कि जब सब हो जाएगा तब भोग लूंगा।

उसने मौत से कहा कि मैं एक करोड़ रुपए दे देता हूं; सिर्फ चौबीस घंटे मुझे मिल जाएं। क्योंकि मैं भोग तो पाया ही नहीं। मौत ने कहा कि यह सौदा नहीं हो सकेगा। उसने कहा कि मैं पांच करोड़ दे देता हूं, मैं दस करोड़ दे देता हूं..एक चौबीस घंटे! आखिर वह इस बात पर राजी हो गया कि मैं सब दे देता हूं..सिर्फ चौबीस घंटे!

यह सब उसने इकट्ठा किया पूरा जीवन गंवा कर। अब वह सब देने को राजी है चौबीस घंटे के लिए। क्योंकि न तो उसने कभी खुले मन से सांस ली, न कभी फूलों के पास बैठा, न उगते सूरज को देखा, न चांद-तारों से बात की, न खुले आकाश के नीचे हरी धूप पर कभी क्षण भर लेटा। जीवन को देखने का मौका न मिला। धन इकट्ठा करता रहा और सोचता रहा, आज नहीं कल, जब सब मेरे पास होगा, तब भोग लूंगा। सब देने को राजी है!

लेकिन मौत ने कहा कि नहीं। कोई उपाय नहीं। तुम सब भी दो, तो भी चौबीस घंटे मैं नहीं दे सकती हूं। कोई उपाय नहीं, समय गया। तुम उठो, तैयार हो जाओ।

तो उस आदमी ने कहा, एक क्षण! वह मेरे लिए नहीं, मैं लिख दूं, मेरे पीछे आने वाले लोगों के लिए। मैंने जिंदगी गंवायी इस आशा में कि कभी भोगूंगा, और जो मैंने कमाया उससे मैं मृत्यु से एक क्षण भी लेने में समर्थ न हो सका।

उस आदमी ने यह एक कागज पर लिख दिया और खबर दी कि मेरी कब्र पर इसे लिख देना।

सभी कब्रों पर यही लिखा हुआ है। तुम्हारे पास पढ़ने की आंखें हों तो पढ़ लेना। और तुम्हारी कब्र पर भी यही लिखा जाएगा, अगर चेते नहीं। अगर तुम देखो, तो तुम्हें जो मिला है वह अपरंपार है।

जीवन का कोई मूल्य है? एक क्षण के जीवन के लिए तुम कुछ भी देने को राजी हो जाओगे। लेकिन वर्शों के जीवन के लिए तुमने परमात्मा को धन्यवाद भी नहीं दिया। मरुस्थल में मर रहे होगे प्यासे, तो एक घूंट पानी के लिए तुम कुछ भी देने को राजी हो जाओगे। लेकिन इतनी सरिताएं बह रही हैं, वर्शा में इतने बादल तुम्हारे घर पर घुमड़ते हैं, तुमने एक बार उन्हें धन्यवाद नहीं दिया। अगर सूरज ठंडा हो जाएगा तो हम सब यहीं के यहीं मुर्दा हो जाएंगे, इसी वक्त! लेकिन हमने कभी उठ कर सुबह सूरज को धन्यवाद न दिया!

असल में आदमी का एक बड़ा अद्भुत तर्क है। जो उसके पास होता है वह उसे दिखायी नहीं पड़ता। जो नहीं होता है वह दिखायी पड़ता है। जब तुम्हारा दांत एक टूट जाएगा, तब तुम्हारी जीभ बार-बार उसी जगह जाएगी। जब तक दांत था तब तक कभी न गयी। खाली जगह को टटोलेगी। तुम चेश्टा भी करोगे कि जीभ को वहां न ले जाएं, क्या सार है? लेकिन जीभ वहीं-वहीं जाएगी।

आदमी का मन खाली जगह को टटोलता है। भरी जगह के प्रति अंधा है, खाली के प्रति आंखें हैं। जो तुम्हारे पास है, तुमने कभी उसका हिसाब लगाया है? और जब तक तुम्हें वह हिसाब साफ न हो जाए, तुम परमात्मा के दानों का हिसाब न लगा पाओगे। वे अनंत हैं।

लेकिन कम से कम जो तुम्हें मिला है, वहां से तो तुम सोचो। जो तुमने पाया है, उसे तुम देखो। और चारों तरफ उसके दानों की वर्शा हो रही है। जैसे हर कृत्य के पीछे उसका हाथ है, वैसे ही हर कृत्य के पीछे उसका दान है। यह पूरा अस्तित्व तुम्हारे लिए खिल रहा है। यह पूरा अस्तित्व उसकी भेंट है। और जब कोई इसको देख पाता है, तब एक नयी तरह की भक्ति का जन्म होता है।

एक है नास्तिक, वह अकड़ा हुआ है अहंकार से। एक है आस्तिक, वह कंप रहा है भय से। वे दोनों ही धार्मिक नहीं हैं। धार्मिक है तीसरा व्यक्ति, जो नाच रहा है अहोभाव से। जो आनंदमग्न है कि जो मिला है वह अपरंपार है।

नानक कहते हैं, ‘न उसके कृत्यों का कोई अंत है, न उसके दानों का कोई अंत है।

मित्रो, सद्गुरु की और प्रभु की मेहरबानी को महसूस करने के लिए हम उस दिशा में चलें, जिसका नाम ध्यान है, समाधि है, सुमिरन है। अनुग्रह भाव में जीना ही वास्तविक धर्म है। यही अध्यात्म की अंतिम मंजिल है और यही मार्ग की शुरुआत भी। साध्य भी है और साधन भी। हरि ओम् तत्सत्!

– ओशो 

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