सेक्स एक सृजनात्मक शक्ति है। पति-पत्नी के संबंध में उसका क्रिएटिव उपयोग कैसे किया जाए?

यह बड़ी बहुमूल्य बात पूछी है। शायद ही ऐसे लोग होंगे, जो इस तरह के, जिनके लिए इस तरह का प्रश्न उपयोगी न हो, सार्थक न हो। दुनिया में दो ही तरह के लोग हैं। एक वे लोग हैं, जो सेक्स की, काम की शक्ति से पीड़ित हैं। और एक वे लोग हैं, जिन्होंने काम की शक्ति को प्रेम की शक्ति में परिणत कर लिया है।

आप जानकर हैरान होंगे, प्रेम और काम, प्रेम और सेक्स विरोधी चीजें हैं। जितना प्रेम विकसित होता है, सेक्स क्षीण हो जाता है। और जितना प्रेम कम होता है, उतना सेक्स ज्यादा हो जाता है। जिस आदमी में जितना ज्यादा प्रेम होगा, उतना उसमें सेक्स विलीन हो जाएगा। अगर आप परिपूर्ण प्रेम से भर जाएंगे, आपके भीतर सेक्स जैसी कोई चीज नहीं रह जाएगी। और अगर आपके भीतर कोई प्रेम नहीं है, तो आपके भीतर सब सेक्स है।

सेक्स की जो शक्ति है, उसका परिवर्तन, उसका उदात्तीकरण प्रेम में होता है। इसलिए अगर सेक्स से मुक्त होना है, तो सेक्स को दबाने से कुछ भी न होगा। उसे दबाकर कोई पागल हो सकता है। और दुनिया में जितने पागल हैं, उसमें से सौ में से नब्बे संख्या उन लोगों की है, जिन्होंने सेक्स की शक्ति को दबाने की कोशिश की है। और यह भी शायद आपको पता होगा कि सभ्यता जितनी विकसित होती है, उतने पागल बढ़ते जाते हैं, क्योंकि सभ्यता सबसे ज्यादा दमन सेक्स का करवाती है। सभ्यता सबसे ज्यादा दमन, सप्रेशन सेक्स का करवाती है! और इसलिए हर आदमी अपने सेक्स को दबाता है, सिकोड़ता है। वह दबा हुआ सेक्स विक्षिप्तता पैदा करता है, अनेक बीमारियां पैदा करता है, अनेक मानसिक रोग पैदा करता है।

सेक्स को दबाने की जो भी चेष्टा है, वह पागलपन है। ढेर साधु पागल होते पाए जाते हैं। उसका कोई कारण नहीं है सिवाय इसके कि वे सेक्स को दबाने में लगे हुए हैं। और उनको पता नहीं है, सेक्स को दबाया नहीं जाता। प्रेम के द्वार खोलें, तो जो शक्ति सेक्स के मार्ग से बहती थी, वह प्रेम के प्रकाश में परिणत हो जाएगी। जो सेक्स की लपटें मालूम होती थीं, वे प्रेम का प्रकाश बन जाएंगी। प्रेम को विस्तीर्ण करें। प्रेम सेक्स का क्रिएटिव उपयोग है, उसका सृजनात्मक उपयोग है। जीवन को प्रेम से भरें।

आप कहेंगे, हम सब प्रेम करते हैं। मैं आपसे कहूं, आप शायद ही प्रेम करते हों; आप प्रेम चाहते होंगे। और इन दोनों में जमीन-आसमान का फर्क है। प्रेम करना और प्रेम चाहना, ये बड़ी अलग बातें हैं। हममें से अधिक लोग बच्चे ही रहकर मर जाते हैं। क्योंकि हरेक आदमी प्रेम चाहता है। प्रेम करना बड़ी अदभुत बात है। प्रेम चाहना बिलकुल बच्चों जैसी बात है।

छोटे-छोटे बच्चे प्रेम चाहते हैं। मां उनको प्रेम देती है। फिर वे बड़े होते हैं। वे और लोगों से भी प्रेम चाहते हैं, परिवार उनको प्रेम देता है। फिर वे और बड़े होते हैं। अगर वे पति हुए, तो अपनी पत्नियों से प्रेम चाहते हैं। अगर वे पत्नियां हुईं, तो वे अपने पतियों से प्रेम चाहती हैं। और जो भी प्रेम चाहता है, वह दुख झेलता है। क्योंकि प्रेम चाहा नहीं जा सकता, प्रेम केवल किया जाता है। चाहने में पक्का नहीं है, मिलेगा या नहीं मिलेगा। और जिससे तुम चाह रहे हो, वह भी तुमसे चाहेगा। तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी। दोनों भिखारी मिल जाएंगे और भीख मांगेंगे। दुनिया में जितना पति-पत्नियों का संघर्ष है, उसका केवल एक ही कारण है कि वे दोनों एक-दूसरे से प्रेम चाह रहे हैं और देने में कोई भी समर्थ नहीं है।

इसे थोड़ा विचार करके देखना आप अपने मन के भीतर। आपकी आकांक्षा प्रेम चाहने की है हमेशा। चाहते हैं, कोई प्रेम करे। और जब कोई प्रेम करता है, तो अच्छा लगता है। लेकिन आपको पता नहीं है, वह दूसरा भी प्रेम करना केवल वैसे ही है जैसे कि कोई मछलियों को मारने वाला आटा फेंकता है। आटा वह मछलियों के लिए नहीं फेंक रहा है। आटा वह मछलियों को फांसने के लिए फेंक रहा है। वह आटा मछलियों को दे नहीं रहा है, वह मछलियों को चाहता है, इसलिए आटा फेंक रहा है। इस दुनिया में जितने लोग प्रेम करते हुए दिखायी पड़ते हैं, वे केवल प्रेम पाना चाहने के लिए आटा फेंक रहे हैं। थोड़ी देर वे आटा खिलाएंगे, फिर…।

और दूसरा व्यक्ति भी जो उनमें उत्सुक होगा, वह इसलिए उत्सुक होगा कि शायद इस आदमी से प्रेम मिलेगा। वह भी थोड़ा प्रेम प्रदर्शित करेगा। थोड़ी देर बाद पता चलेगा, वे दोनों भिखमंगे हैं और भूल में थे; एक-दूसरे को बादशाह समझ रहे थे! और थोड़ी देर बाद उनको पता चलेगा कि कोई किसी को प्रेम नहीं दे रहा है और तब संघर्ष की शुरुआत हो जाएगी।

दुनिया में दाम्पत्य जीवन नर्क बना हुआ है, क्योंकि हम सब प्रेम मांगते हैं, देना कोई भी जानता नहीं है। सारे झगड़े के पीछे बुनियादी कारण इतना ही है। और कितना ही परिवर्तन हो, किसी तरह के विवाह हों, किसी तरह की समाज व्यवस्था बने, जब तक जो मैं कह रहा हूं अगर नहीं होगा, तो दुनिया में स्त्री और पुरुषों के संबंध अच्छे नहीं हो सकते। उनके अच्छे होने का एक ही रास्ता है कि हम यह समझें कि प्रेम दिया जाता है, प्रेम मांगा नहीं जाता, सिर्फ दिया जाता है। जो मिलता है, वह प्रसाद है, वह उसका मूल्य नहीं है। प्रेम दिया जाता है। जो मिलता है, वह उसका प्रसाद है, वह उसका मूल्य नहीं है। नहीं मिलेगा, तो भी देने वाले का आनंद होगा कि उसने दिया। अगर पति-पत्नी एक-दूसरे को प्रेम देना शुरू कर दें और मांगना बंद कर दें, तो जीवन स्वर्ग बन सकता है। और जितना वे प्रेम देंगे और मांगना बंद कर देंगे, उतना ही—अदभुत जगत की व्यवस्था है—उन्हें प्रेम मिलेगा। और उतना ही वे अदभुत अनुभव करेंगे—जितना वे प्रेम देंगे, उतना ही सेक्स उनका विलीन होता चला जाएगा।

गांधी जी पीछे वहां लंका में थे। वे कस्तूरबा के साथ लंका गए। वहां जो व्यक्ति था, जिसने उनका परिचय दिया पहली सभा में, उसने समझा कि बा आयी हैं साथ, शायद ये गांधी जी की मां होंगी। बा से उसने समझा कि गांधी जी की मां भी साथ आयी हुई हैं। उसने परिचय में गांधी जी के कहा कि ‘यह बड़े सौभाग्य की बात है कि गांधी जी भी आए हैं और उनकी मां भी आयी हुई हैं।’
बा तो बहुत हैरान हो गयीं। गांधी जी के सेक्रेटरी जो साथ थे, वे भी बहुत घबड़ा गए कि भूल तो उनकी है, उनको बताना चाहिए था कि कौन साथ है। वे बड़े घबड़ा गए कि शायद बापू डांटेंगे। शायद कहेंगे कि ‘यह क्या भद्दी बात करवायी!’ लेकिन गांधी जी ने जो बात कही, वह बड़ी अदभुत थी। उन्होंने कहा कि ‘मेरे इन भाई ने मेरा जो परिचय दिया, उसमें भूल से एक सच्ची बात कह दी है। कुछ वर्षों से बा मेरी पत्नी नहीं है, मेरी मां हो गयी है।’ उन्होंने कहा, ‘कुछ वर्षों से बा मेरी पत्नी नहीं है, मेरी मां हो गयी है!’ सच्चा संन्यासी वह है, जिसकी एक दिन पत्नी मां हो जाए; पत्नी को छोड़कर भाग जाने वाला नहीं। सच्चा संन्यासी वह है, जिसकी एक दिन पत्नी मां बन जाए। सच्ची संन्यासिनी वह है, जो एक दिन अपने पति को अपने पुत्र की तरह अनुभव कर पाए। पुराने ऋषि सूत्रों में एक अदभुत बात कही गयी है। पुराना ऋषि कभी आशीर्वाद देता था कि ‘तुम्हारे दस पुत्र हों और ईश्वर करे, ग्यारहवां पुत्र तुम्हारा पति हो जाए।’ बड़ी अदभुत बात थी। ये आशीर्वाद देते थे वधु को विवाह करते वक्त कि ‘तुम्हारे दस पुत्र हों और ईश्वर करे, तुम्हारा ग्यारहवां पुत्र तुम्हारा पति हो जाए।’ यह अदभुत कौम थी और अदभुत विचार थे। और इसके पीछे बड़ा रहस्य था।

अगर पति और पत्नी में प्रेम बढ़ेगा, तो वे पति-पत्नी नहीं रह जाएंगे, उनके संबंध कुछ और हो जाएंगे। और उनसे सेक्स विलीन हो जाएगा और वे संबंध प्रेम के होंगे। जब तक सेक्स है, तब तक शोषण है। सेक्स शोषण है! और जिसको हम प्रेम करते हैं, उसका शोषण कैसे कर सकते हैं? सेक्स एक व्यक्ति का, एक जीवित व्यक्ति का अत्यंत गर्हित और निम्न उपयोग है। अगर हम उसे प्रेम कर सकते हैं, तो हम उसके साथ ऐसा उपयोग कैसे कर सकते हैं? एक जीवित व्यक्ति का हम ऐसा उपयोग कैसे कर सकते हैं अगर हम उसे प्रेम करते हैं? जितना प्रेम गहरा होगा, वह उपयोग विलीन हो जाएगा। और जितना प्रेम कम होगा, वह उपयोग उतना ज्यादा हो जाएगा।

इसलिए जिन्होंने यह पूछा है कि सेक्स एक सृजनात्मक शक्ति कैसे बने, उनको मैं यह कहूंगा कि सेक्स बड़ी अदभुत शक्ति है। शायद इस जमीन पर सेक्स से बड़ी कोई शक्ति नहीं है। मनुष्य जिस चीज से क्रियमाण होता है, मनुष्य के जीवन का नब्बे प्रतिशत हिस्सा जिस चक्र पर घूमता है, वह सेक्स है; वह परमात्मा नहीं है। वे लोग तो बहुत कम हैं, जिनका जीवन परमात्मा की परिधि पर घूमता है। अधिकतर लोग सेक्स के केंद्र पर घूमते और जीवित रहते हैं।

सेक्स सबसे बड़ी शक्ति है। यानि अगर हम ठीक से समझें, तो मनुष्य के भीतर सेक्स के अतिरिक्त और शक्ति ही क्या है, जो उसे गतिमान करती है, परिचालित करती है। इस सेक्स की शक्ति को, इस सेक्स की शक्ति को ही प्रेम में परिवर्तित किया जा सकता है। और यही शक्ति परिवर्तित होकर परमात्मा तक पहुंचने का मार्ग बन जाती है। इसलिए यह स्मरणीय है कि धर्म का बहुत गहरा संबंध सेक्स से है। लेकिन सेक्स के दमन से नहीं—जैसा समझा जाता है—सेक्स के सब्लिमेशन से है। सेक्स के दमन से धर्म का संबंध नहीं है। ब्रह्मचर्य सेक्स का विरोध नहीं है, ब्रह्मचर्य सेक्स की शक्ति का उदात्तीकरण है। सेक्स की ही शक्ति ब्रह्म की शक्ति में परिवर्तित हो जाती है। वही शक्ति, जो नीचे की तरफ बहती थी, अधोगामी थी, ऊपर की तरफ गतिमान हो जाती है। सेक्स ऊर्ध्वगामी हो जाए, तो परमात्मा तक पहुंचाने वाला बन जाता है। और सेक्स अधोगामी हो, तो संसार में ले जाने का कारण होता है।

वह प्रेम से परिवर्तन होगा। प्रेम करना सीखें। और प्रेम करने का मतलब, अभी हम जब आगे भावनाओं के संबंध में बात करेंगे, तो आपको पूरी तरह समझ में आ सकेगा कि प्रेम करना कैसे सीखें। लेकिन इतना मैं अभी फिलहाल कहूं।

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