ओशो – परमात्मा का अनुभव । ओशो सुन भई साधो– (प्रवचन–10)

देश को जगाओ!
इस देश को समाधिस्थ लोगों का नेतृत्व चाहिए। इस देश को ऐसे लोगों का नेतृत्व चाहिए, जिनकी खुद की कोई समस्या नहीं है। तो कुछ हल हो; नहीं तो हल नहीं हो सकता। हल की जगह हालतें और रोज बिगड़ती जाती हैं। लेकिन तुम इसी तरह के लोगों के पीछे हो। तुम इन्हीं की चापलूसी में लगे हो। लोग इन्हीं के चमचे हो गये हैं। और कारण है, क्योंकि चमचों को लगता है कि ये भी माल लूट रहे हैं, कुछ चमचे के हाथ भी लग जायेगा। थोड़ा-बहुत हम भी…। और ऐसा नहीं है कि वे गलती में हैं, कुछ-न-कुछ उनके हाथ लग भी जाता है। मगर देश से किस को लेना-देना है?
एक साहब एक शानदार होटल में पहुंचे। और उन्होंने उमदा कीमती खाना खाया। जब बैरा बिल लाया, तो उन्होंने पैसे देने से इनकार कर दिया। बैरा मैनेजर के पास पहुंचा, उसे सारी बातें बताईं। मैनेजर ने आकर उनकी अच्छी तरह मरम्त की। मार खाकर वह कराहते हुए दरवाजे की तरफ बढ़ रहे थे कि अचानक बैरे ने झपटकर उनके मुंह पर दो घूंसे रसीद दिये। मैनेजर ने बैरे को डांटा, जब मैं मार चुका हूं, तो तुम्हें मारने की क्या जरूरत पड़ी? बैरे ने कहा: जी, वह तो आपने अपना बिल वसूल किया था; मुझे भी तो अपना टिप वसूल करने दीजिए।
तो नेता हैं, वे अपना बिल वसूल कर रहे हैं; उनके चमचे हैं, वे अपना टिप वसूल कर रहे हैं। तुम कुटे-पिटे जा रहो हो। मगर तुम इन्हीं को बार-बार समर्थन दिये जा रहे हो, कोई करे भी तो क्या करे?
देश को जगाओ! देश को थोड़ा-सा होश से भरो। समस्याएं बड़ी हैं। तुम्हें बड़े लोग चाहिए। जो तुम्हारी समस्याएं हल कर सकें। दूर-दृष्टि लोग चाहिए। वैज्ञानिक क्षमता, प्रतिभा के लोग चाहिए। सड़े-गले लोगों को मुर्दों को तुम बिठा दोगे दिल्ली में…इससे सिर्फ समय कटेगा। और समय के साथ समस्याएं बढ़ती चली जाती हैं। अच्छे-अच्छे नाम…परिणाम कुछ भी नहीं हैं।

कितने लोग मेरे साथ चले और ठहर गए! जगह—जगह रुक गए, मील के पत्थरों पर रुक गए! जिसकी जितनी औकात थी, सामर्थ्य थी, वहां तक साथ आये और रुक गए। फिर उसे डर लगने लगा कि और चलना अब खतरे से खाली नहीं। किसी मील के पत्थर को उसने मंजिल बना लिया और वह मुझसे नाराज हुए कि मैं भी क्यों नहीं रुकता हूं मैं भी क्यों और आगे की बात किए जाता हु।
मेरे साथ सब तरह के लोग चले। जैन मेरे साथ चले, मगर वहीं तक चले जहां तक महावीर का पत्थर उन्हें ले जा सकता था। महावीर का मील का पत्थर आ गया कि वे रुक गए। और मैंने उनसे कहां, महावीर से आगे जाना होगा।
महावीर को हुए पच्चीस सौ साल हो चुके। इन पच्चीस सौ सालों में जीवन कहां से कहां पहुंच गया, गंगा का कितना पानी बह गया! महावीर तक आ गए, यह सुंदर, मगर आगे जाना होगा। उनके लिए महावीर अंतिम थे; वहीं पड़ाव आ जाता है, वहीं मंजिल हो जाती है।
मेरे साथ बौद्ध चले, मगर बुद्ध पर रुक गए। मेरे साथ कृष्ण को माननेवाले चले, लेकिन कृष्ण पर रुक गए। मेरे साथ गांधी को माननेवाले चले, लेकिन गांधी पर रुक गए। जहां उन्हें लगा कि उनकी बात के मैं पार जा रहा हूं वहां वे मेरे दुश्मन हो गए।
मैंने बहुत मित्र बनाए, लेकिन उनमें से धीरे धीरे दुश्मन होते चले गए। यह स्वाभाविक था। जब तक उनकी धारणा के मैं अनुकूल पड़ता रहा, वे मेरे साथ खड़े रहे। मेरे साथ तो वही चल सकते हैं, जिनकी धारणा ही चरैवेति—चरैवेति की है, जो चलने में ही मंजिल मानते हैं। जो अन्वेषण में ही, जो शोध में ही, अभियान में ही गंतव्य देखते हैं।
गति ही जिनके लिए गंतव्य है, वही मेरे साथ चल सकते हैं। क्योंकि मैं तो रोज नयी बात कहता रहूंगा। मेरे लिए तो रोज नया है। हर रोज नया सूरज ऊगता है, जो डूबता है वह डूब गया। जो जा चुका, जा चुका—बीती ताहि बिसार दे!
~: ओशो :~

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