आप सेक्स के बारे में बहुत सी बात रहे हो। जो अच्छी बात है, क्योंकि एक लंबे समय से इसको अंधेरे में रखा गया था। जो भी हो मैंने व्यक्तिगत रूप से आपको कभी समलैंगिकता के बारे में बोलते नहीं सुना है। केवल बहुत ही संक्षेप में और वस्तुत: आप इसको निम्नतम पर रखते रहे है। कृपया क्या आप इसके बारे में बात करेंगे, क्योंकि ‘यह विकृत कृत्य’ जैसा कि आप इसे कहते है, चाहे जो भी इसका कारण हो, समलैंगिकता संसार में थी और है। क्या चंद्र पक्ष का सूर्य पक्ष से संगम नहीं हो सकता,फिर शरीर चाहे जो हो? क्या तंत्र केवल विषमलिंगी लोगों के लिए ही है? क्या लोगों को अपनी समलैंगिक प्रवृतियों का दमन करना चाहिए?
पहली बात, प्रश्नकर्ता ने अपने प्रश्न पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं, इससे स्पष्ट होता है कि वह भी इसके बारे में अपराध—बोध से ग्रस्त है। वह नहीं चाहता कि उसका नाम जाना जाए। प्रश्न के साथ हस्ताक्षर न करके उसने समलैंगिकता को पहले ही निदिंत कर दिया है।
मैं किसी बात के विरोध में नहीं हूं लेकिन मैं अनेक बातों के पक्ष में हूं। मैं पुन: कहता हूं मैं किसी बात के विरोध में नहीं हूं लेकिन मैं अनेक बातों के पक्ष में हूं। मैं कीचड़ के विरोध में नहीं हूं लेकिन मैं कमल के पक्ष में हूं। सेक्स का रूपांतरण किया जाना चाहिए। यदि इसका रूपांतरण न हो,तो तुम अपने अस्तित्व की निम्नतम पायदान पर बने रहोगे। अत: समझने के लिए पहली बात है, मैं सेक्स के बारे में बात करता हूं जिससे कि तुम इसको समझ सको और इसका अतिक्रमण कर सको।
समलैंगिकता तो विषमलैंगिकता से भी निम्नतल पर है। इसमें गलत कुछ भी नहीं है, तुम्हारी सीढ़ी में अभी एक निचली पायदान और है। उसका भी अतिक्रमण किया जाना है। इसलिए पहली बात,सेक्स का अतिक्रमण किया जाना है। याद करने के लिए दूसरी बात, समलैंगिकता और नीचे की पायदान है।
प्रत्येक बच्चा आत्मलिगी जन्म लेता है, हर बच्चा आत्मरति दशा में है। यह एक अवस्था है,बच्चे को उससे पार जाना है। हर बच्चा अपने यौन—अंगों से खेलना पसंद करता है। और यह सुखदायक है इसमें गलत कुछ भी नहीं है, लेकिन यह बचकाना है। यह सेक्स की पहली सीख है,एक पूर्व तैयारी, तैयार हो जाना, तैयारी है। लेकिन यदि तुम पैंतीस, चालीस, साठ वर्ष के हो गए हो और भी आत्मरति दशा में हो, तो कुछ गड़बड़ है।
जब मैं कहता हूं कुछ गड़बड़ है, तो मेरा अभिप्राय मात्र यही है कि तुम विकसित होने में समर्थ नहीं हो सके हो, तुम्हारी मानसिक आयु कम रह गई है।
आत्मरति की अवस्था के बाद, जिसे मैं आत्मलिंगी कहता हूं बालक समलिंगी हो जाता है। दस वर्ष की आयु के आस—पास बालक समलिंगी हो जाता है। वह उन शरीरों में अधिक उत्सुक हो उठता है जो उसके शरीर जैसे हैं। यह एक स्वाभाविक विकास है। पहले वह अपने स्वयं के शरीर में उत्सुक था, अब वह शरीरों में रुचि रखता है जो उसके समान है—लड़का लड़कों में रुचि लेता है, एक लड़की लड़कियों में रुचि लेती है। यह एक स्वाभाविक अवस्था है। लेकिन लड़का स्वयं से दूर जा रहा है, अपनी काम—ऊर्जा को, कामेच्छा को, अन्य लडकों की ओर गतिशील कर रहा है। और यह प्राकृतिक लगता है। क्योंकि अन्य लड़के उसे अन्य लड़कियों की तुलना में अपने समान लगते हैं। लेकिन उसने एक कदम उठा लिया है;वह समलिंगी हो गया है।, ठीक है, कुछ भी गलत नहीं है इसमें, लेकिन यदि साठ वर्ष की आयु में अब भी तुम समलैंगिक हो, तो तुम मंदबुद्धि हो,तुममें लड़कपन है। इसीलिए समलैंगिक लोगों में लड़कपन वाला ढंग कायम रहता है और वे खुश दीखते हैं। यह निश्चित है कि वे विषमलिंगियो से अधिक खुश दिखाई पड़ते हैं। उनके चेहरों में भी लड़कपन की छाप रहती है। अपनी समलैंगिकता को छिपाना बहुत कठिन है तुम्हारा चेहरा, तुम्हारी आंखें, सब कुछ इसे प्रदर्शित करता है। तुम लड़कपन में रुके रहते हो। इससे होकर गुजर जाना शुभ है, लेकिन इससे आसक्त होना गलत है।
फिर तीसरी अवस्था आती है, विषमलैंगिकता। लड़का लडकी में रुचि रखने लगता है, लड़की लड़के में रुचि रखने लगती है। जहां तक सेक्स जा सकता है यह उच्चतम अवस्था है, लेकिन इसकी भी एक सीमा है। यदि तुम बयालीस वर्ष के बाद भी सेक्स में रुचि रखते हो तो किसी बात से चूक रहे हो तुम। फिर तुमने इसको ढंग से नहीं जीया है,वरना जिस समय तुम बयालीस वर्ष के हो…। चौदह वर्ष की आयु में तुम वास्तव में काम संबंध में, बच्चे को जन्माने में, माता या पिता बन पाने में सक्षम हो जाते हो। तुम्हें तैयार करने में चौदह वर्ष लगते हैं। दूसरे चौदह वर्ष बाद अट्ठाइस वर्ष के आस—पास तुम अपनी कामुकता के शिखर पर होते हो। अगले चौदह वर्ष बाद, बयालीस वर्ष की आयु में तुम वापस लौटने लगते हो। वर्तुल पूरा हो गया है। जुग ने कहा है, ‘चालीस वर्ष की आयु के बाद जो भी मेरे पास आता है, उसकी समस्या धार्मिक है।’ यदि बयालीस वर्ष की आयु के बाद भी तुम कामवासना को लेकर परेशान हो और समस्या ग्रस्त हो, तो तुम्हारे जीवन में कही चूक हो गई है।
इसके चौदह वर्ष बाद, छप्पन वर्ष की आयु में व्यक्ति काम से बस मुक्त हो जाता है। और चौदह वर्ष, छप्पन से सत्तर तक पुन: दूसरा बचपन। मृत्यु से पूर्व तुमको उसी बिंदु पर पहुंचना पड़ता है, जैसे कि तुम जन्म के समय थे, वर्तुल पूरा हो गया, बच्चे हो गए तुम। जीसस जब कहते हैं. ‘जब तक कि तुम बच्चे जैसे न हो जाओ, तुम मेरे परमात्मा के राज्य में प्रवेश न कर सकोगे।’ तो उनका यही अभिप्राय है। यह करीब—करीब सत्तर वर्ष का वर्तुल है। यदि तुम अस्सी वर्ष या सौ वर्ष जीते हो तो इसमें अंतर पड़ जाएगा, फिर तुम उस हिसाब से बांट सकते हो।
मैं किसी बात के विरुद्ध नहीं हूं लेकिन मैं तुम्हारी किसी स्थान से चिपक जाने में सहायता भी नहीं करूंगा। चलते रहो, चलते रहो, किसी स्थान से आसक्त मत हो जाओ। अवसर का उपयोग कर लो, लेकिन रुको मत।
कुछ कहानियां:
एक परेशान दीख रहे व्यक्ति ने लड़खड़ाते हुए एक मनोचिकित्सक के कक्ष में प्रवेश किया और बोला डाक्टर. साहब आपको मेरी सहायता करनी होगी। प्रत्येक रात्रि मुझे स्वप्न आता है कि एक वीरान टापू पर मैं एक दर्जन सुनहरे, एक दर्जन काले और एक दर्जन लाल बालों वाली सुंदरियों,जिनमें प्रत्येक एक से बढ़ कर एक सुंदर हैं, के साथ रह रहा हूं।
तुम तो संसार के सर्वाधिक भाग्यशाली व्यक्ति हो, डाक्टर ने कहा, अब मेरी मदद तुम्हें किसलिए चाहिए?
मेरी समस्या, रोगी ने कहा, यह है कि स्वप्न में मैं पुरुष होता हूं।
इसे सेक्स गए तुम? वरना मैं एक चुटकुला और सुनाता हूं।
सेना के दो अवकाश प्राप्त कर्नल अपने क्लब में बैठे हुए बातें कर रहे थे।
क्या तुमने के कार्सटेयर्स के बारे में कुछ सुना है?पहले ने पूछा।
नहीं तो, क्या हुआ उसे? दूसरे ने पूछा।
उसको भारत में एक महाराजा के सैन्य सलाहकार के रूप में नौकरी मिल गई। एक दिन वह जंगल में भाग गया और वहीं का निवासी हो गया। अब वह एक वृक्ष पर बंदर के साथ रहता है।
अरे भगवान। दूसरा कर्नल आश्चर्य से बोला, यह बंदर है या बंदरिया?
निःसंदेह बंदरिया ही है। के कार्सटेयर्स के शौक विचित्र हैं।
समलैंगिकता मंदमति अवस्था है, लेकिन पश्चिम में यह और— और अधिक प्रभावी होती जा रही है। इसके कारण हैं, मैं तुम्हें उनमें से कुछ बताना चाहूंगा।
अपनी जंगली दशा में कोई पशु कभी समलैंगिक नहीं होता, लेकिन चिड़ियाघर में वे समलैंगिक हो जाते हैं। अपनी जंगली दशाओं में पशु कभी भी समलिंगी नहीं होते, लेकिन चिड़ियाघरों में जहां वे स्वतंत्र नहीं हैं, और उनके पास आवश्यक स्थान नहीं है, और वहां बहुत अधिक भीड़ में जीते हुए वे समलिंगी बन जाते हैं। यह संसार बहुत भीड़ भरा हुआ जा रहा है, यह चिड़ियाघर जैसा अधिक लगता है, सारे नैसर्गिक विकास खो रहे हैं और लोग अत्याधिक तनावग्रस्त होते जा रहे हैं। समलैंगिकता के बढ़ते जाने का एक कारण यह है।
दूसरी बात, पश्चिम में सेक्स को प्रतिबद्धता की तुलना में मजे के रूप में अधिक सोचा जाता है। व्यक्ति अस्थायी संबंध रखना चाहता है। किसी स्त्री के साथ संबद्ध हो जाना मुसीबत में फंस जाना है। एक स्त्री के साथ जीते रहने का अभिप्राय है गहरी संलग्नता—बच्चे, परिवार, नौकरी, मकान, कार और हजारों चीजें साथ में चली आती है। एक बार स्त्री आ जाए, सारा संसार उसके पीछे चला आता है। पाश्चात्य मन संलग्न होने से और— और भयभीत होता जा रहा है, लोग असंलग्न रहना पसंद करते हैं। समलैंगिक संबंधों में असंलग्न रह पाना विषमलिंगी संबंधों की तुलना में अधिक सरल है। कोई बच्चे नहीं, और तुरंत ही प्रतिबद्धता लगभग नहीं के बराबर हो जाती है।
तीसरा कारण. पश्चिम में नारी मुक्ति आंदोलन,कि पुरुषों ने अब तक स्त्रियों का दमन किया है, के कारण स्त्रियां समलैंगिक, लेसबियन होती जा रही हैं। और पुरुष ने सताया है, यह अब तक की बड़ी से बड़ी दासता रही है। स्त्रियों के समान कोई वर्ग जुल्म का इस कदर शिकार नहीं हुआ है। अब उसकी प्रतिक्रिया, बगावत हो रही है। पश्चिमी महिलाओं के संगठन हैं जो लेसबियनवाद,समलैंगिकता को प्रोत्साहित करते हैं—पुरुषों के साथ के सारे संबंधों से बाहर निकल आना है। शत्रु को प्रेम करना भूल जाओ। पुरुष शत्रु हैं; पुरुष से हर प्रकार के संबंधों से हट जाना है। स्त्री को प्रेम करना बेहतर है, स्त्री स्त्री से प्रेम करती है।
स्त्रियां और—और आक्रामक होती जा रही हैं। पुरुष उनसे संबंध रखने से और—और भयभीत होता जा रहा है।
ये परिस्थितियां समलैंगिकता को उत्पन्न कर रही हैं, लेकिन यह एक विकृति है। यदि तुम इसमें हो, मैं तुम्हारी निंदा नहीं करता, मैं केवल यह कहता हूं कि अपनी अनुभूतियों में गहरे उतरो, और अधिक ध्यान करो, और धीरे— धीरे तुम देखोगे कि तुम्हारी समलैंगिकता विषमलैंगिकता में परिवर्तित हो रही है। यदि तुम आत्मरति अवस्था में हो, तो मैं चाहूंगा कि तुम समलिंगी हो जाओ, बेहतर है यह। यदि तुम समलैंगिक हो, तो मैं चाहूंगा कि तुम विषमलिंगी हो जाओ, यह बेहतर है। यदि तुम पहले से ही विषमलिंगी हो, तो मैं चाहूंगा कि तुम ब्रह्मचारी हो जाओ, यह बेहतर है। लेकिन आगे बढ़ते रहो।
मैं किसी बात की निंदा नहीं करता हूं।
प्रश्नकर्ता कहता है. ‘…..समलैंगिकता संसार में थी और है।’
ठीक है यह बात। ट्यूबरक्लोसिस भी थी और अब भी है, कैंसर भी, लेकिन यह तो इसके लिए कोई तर्क न हुआ। वास्तविक रूप से बेहतर संसार और—और विषमलिंगी हो जाएगा। क्यों? क्योंकि स्त्री और पुरुष या यिन और यांग जब मिलते हैं वर्तुल पूर्ण हो जाता है, जैसे कि ऋणात्मक विद्युत और धनात्मक विद्युत मिलती है और वर्तुल पूर्ण हो जाता है। जब पुरुष पुरुष से मिलता है, यह ऋणात्मक विद्युत का ऋणात्मक विद्युत से मिलना है या धनात्मक विद्युत का धनात्मक विद्युत से मिलना है, इससे आंतरिक ऊर्जा का वर्तुल निर्मित नहीं होगा। यह तुमको अधूरा छोड़ देगा। यह कभी तृप्तिदायी नहीं होगा। समझ लो, यह सुविधापूर्ण हो सकता है। यह सुविधापूर्ण हो सकता है किंतु यह कभी तृप्तिदायी नहीं हो सकता है। और सुविधा नहीं, तृप्ति लक्ष्य है।
याद रखो कि यदि अपने अंतस में तुमको एक दिन कामवासना के पार जाने की चाह है, कि ब्रह्मचर्य को उदित होना है, कि शुद्धतम कामरहितता उपजनी है, तो स्वाभाविक ढंग से चलना श्रेष्ठ है। मेरी समझ यही है कि विषमलिंगी के लिए समलिंगी की तुलना में कामवासना के पार जाना सरलतर है। क्योंकि एक पायदान कम है, तो समलिंगी के लिए यहां अधिक श्रम और अनावश्यक प्रयास की आवश्यकता होगी।
लेकिन फिर भी मैं किसी बात के विरोध में नहीं हूं। यदि तुम्हें अच्छा लगता है तो इसका निर्णय तुम्हीं को करना पड़ता है। मैं इसे कोई पाप नहीं कहता, और मैं यह भी नहीं कह रहा हूं कि यदि तुम समलैंगिक हो तो तुमको नरक में फेंक दिया जाएगा। मूढ़तापूर्ण है यह सब। यदि तुम समलिंगी हो तो तुम किसी बात से—वह जब यिन—यांग का मिलन होती है, वह अनुभव जब धनात्मक से ऋणात्मक मिलता है, रात—दिन मिलते हैं, से चूक जाओगे। तुम किसी बात को खो, दोगे। ऐसा नहीं है कि तुमको नरक में फेंक दिया जाएगा, लेकिन तुम अपने जीवन से कुछ ऐसा खो दोगे जो स्वर्ग का है।
लेकिन फिर भी निर्णय तुमको ही करना पड़ेगा। मैं तुम्हें कोई धर्माज्ञा नहीं दे रहा हूं।
असली बात तो यह है कि धार्मिक आशाओं ने वह परिस्थिति निर्मित की है, जिसमें पहली बार समलैंगिकता का जन्म हुआ था। यह जानकर तुमको आश्चर्य होगा कि संसार में समलैंगिकता का कारण धर्म रहे हैं, क्योंकि उन्होंने जोर दिया कि पुरुष साधुओं को एक मोनेस्ट्री में रहना पडेगा, स्त्री साध्वियों को एक दूसरी मोनेस्ट्री में रहना होगा और वे परस्पर मिल नहीं सकते। बौद्धों, जैनों,ईसाइयों, सभी ने हजारों पुरुषों को एक झुंड में और हजारों स्त्रियों को एक दूसरे झुंड में रहने के लिए बाध्य कर दिया था, और उन दोनों के बीच के सारे सेतु तोड़ दिए थे। वे समलैंगिकता के लिए पहली उपजाऊ भूमि थे। उन्हीं ने यह परिस्थिति निर्मित की थी, क्योंकि काम एक ऐसी गहरी इच्छा है कि यदि तुम इसके प्राकृतिक निकास द्वार को रोक दो तो यह विकृत हो जाता है। किसी भी प्रकार से अपने को अभिव्यक्त करने का ढंग और उपाय खोज लेता है।
सेना में लोग आसानी से समलैंगिक हो जाते हैं। लड़कों के छात्रावासों में और लड़कियों के छात्रावासों में लोग सरलता से समलिंगी बन जाते हैं। यदि संसार से समलैंगिकता को मिटाना हो तो पुरुष और स्त्री के बीच के सभी अवरोध समाप्त करने होंगे। छात्रावासों को दोनों, लड़कों और लड़कियों के लिए एक साथ होना चाहिए। और सेना को केवल पुरुषों की नहीं होना चाहिए, इसमें स्त्रियों को भी भर्ती करना चाहिए। और क्लब केवल लड़कों के नहीं होना चाहिए। यह खतरनाक है। और मोनेस्ट्रियों को उभयलिंगी होना चाहिए,वरना समलैंगिकता प्राकृतिक है।
लेकिन यह विकृति है, एक रोग है। जब मैं कहता हूं रोग तो मैं इसकी निंदा नहीं कर रहा हूं मैं इसे करुणावश रोग कह रहा हूं। जब कोई ट्धूबरक्लोसिस से पीड़ित हो, तो हम उसकी निंदा नहीं करते। हम उसकी इससे मुक्त हो पाने में सहायता करते हैं। इसलिए जब लोग मेरे पास आते हैं और स्वीकारते हैं कि वे समलैंगिक हैं, तो मैं कहता हू चिंता मत करो, मैं यहां हूं न, मैं तुमको इससे बाहर ले आऊंगा।
यदि तुम सजग नहीं हो, यदि तुम इसका रूपांतरण नहीं कर रहे हो, तो कामवासना जीवन के परम अंत तक महत्वपूर्ण रहती है। और कामयुक्त रहते हुए मर जाना एक कुरूप मृत्यु है। व्यक्ति को उस बिंदु तक आ चूकना चाहिए जहां कामवासना बहुत पीछे छूट चुकी हो।
थल एवं जल सैन्य क्लब के तीन बहुत पुराने सदस्य ब्रांडी और सिगार की चुस्कियों के बीच घबड़ा देने वाले क्षणों के बारे में चर्चा कर रहे थे।
पहले दो ने अपने जीवन की घटनाओं को दूर अतीत की स्मृतियों में जाकर शर्माते हुए बयान किया और जब तीसरे सज्जन की बारी आई तो उसने बताया कि वह किस प्रकार नौकरानी के शयनकक्ष में की— होल से झांकता हुआ रंगे हाथ पकड़ा गया। अरे हां, उनमें से एक ने मुस्कुरा कर कहा. निश्चित रूप से अपने बचपन के दिनों हम कितने शरारती थे।
बचपन के दिन! नहीं भाई, तीसरे बुजुर्ग ने कहा,यह तो कल रात की बात है।
किंतु कुरूप है यह। वृद्ध व्यक्ति को पुन: छोटे बच्चे के जैसा हो जाना चाहिए। क्योंकि जbकामवासना खोती है, सारी इच्छाएं तिरोहित हो जाती हैं। जब काम मिट जाता है, दूसरों में रुचि समाप्त हो जाती है। समाज से, संसार से, पदार्थ से संपर्क ही कामवासना है। जब कामवासना मिट जाती है, अचानक तुम श्वेत मेघ की भांति पवन विहार करने लगते हो। तुम जड़ों से छूट चुके हो,अब तुम्हारी जड़ें इस संसार में नहीं रहीं।
और जब तुम्हारी ऊर्जा नीचे की ओर निम्नाभिमुख, अधोमुखी नहीं है, तभी यह ऊर्ध्वगामी होने लगती है और सहस्रार पर पहुंच जाती है, जहां कि परम कमल ऊर्जा की प्रतीक्षा कर रहा है कि वह आए और खिलने में इसकी सहायता करे।पतंजलि: योगसूत्र–(भाग–5) प्रवचन–88