वैराग्य नहीं , राग को गहरा करने की कला सीखना: ओशो

प्रेम के सौ रंग
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मैं प्रेम—विरोधी नहीं हूं—यही मेरी देशना है। यही मेरा मौलिक संदेश है। मैं संसार—विरोधी नहीं हूं। मैं संसार के अति प्रेम में हूं। मैं तुम्हें वैराग्य नहीं सिखाता, मैं तुम्हें राग को गहरा करने की कला सिखाता हूं।

मैं तुम्हें निषेध नहीं सिखाता कि तुम भागो और छोड़ो और जंगलों में चले जाओ। मैं तो उस भगोड़ेपन को मूढ़ता कहता हूं। मैं तो कहता हूं इस संसार में थोड़े गहरे उतरों, ऊपर—ऊपर नहीं—या मालिक, इस संसार में संसार का मालिक भी छिपा है, तुम जरा खोदो।

तुम महल में प्रवेश ही नहीं करते। तुम महल की चारदीवारी के चारों तरफ चक्कर काटते रहे जन्मों—जन्मों से। महल तुम्हारी प्रतीक्षा करता है, मालिक तुम्हारी प्रतीक्षा करता है, सब सहज है।

असहज कब घटता है? जब कोई चीज रुक जाती है। बच्चा जवान हो, सहज है। बच्चा बच्चा ही रह जाए तो असहज है। का बूढ़ा ही रह जाए, मरे न तो असहज है। मृत्यु सहज है। जवान बूढ़ा हो, यह सहज है। चीजें बहे, धारा चलती रहे, डबरा न बन जाए; जंहा गत्यावरोध होता है, जहां धारा डबरा बन जाती है, वहीं कुछ असहज हो जाता है।

बस इतनी याद रहे। संन्यास यानी प्रवाह। अनंत प्रवाह। जहां हो, वहीं से आगे जाना है। आगे जाते ही रहना है; जब तक कि अंतिम न मिल जाए।

अंतिम का क्या अर्थ होता है?
अंतिम का अर्थ होता है, जंहा नदी सागर में खो जाती है। फिर और यात्रा—पथ नहीं रह जाता। नदी बचती ही नहीं। यात्री ही खो जाए, तभी समझना कि यात्रा का अंत आ गया है।

साभार:ओशो विचार मंच-

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