चेतनमय यात्रा : ओशो, अमृता और नरेन्द्र मोदी

मुझसे परिचय के प्रारम्भिक दौर में लोगों ने मुझे ओशो से दीक्षा पाई एक संन्यासन के रूप में पाया, जिसके लिए किसी व्यक्ति की चेतना उसके मज़हब की सीमा  से परे की बात है. बहुत से लोग जुड़े, मेरे वर्तमान से, फिर परिचित हुए मेरे अतीत से.

उन्होंने मुझे एक सशक्त महिला के रूप में देखा जिसने सामाजिक अव्यवस्थाओं और नियति की योजनाओं के बीच अपनी पहचान कायम की. जिसके पीछे अधिकारों और कर्तव्यों के संघर्ष की लम्बी दास्तान रही.

और नतीजा यह निकला कि जब व्यक्ति अपने “मैं” की यात्रा पर निकलता है तो उसे बहुत सारे “तुम” से जुदा होना पड़ता है. हरेक का ये “मैं” व्यक्तिगत न होकर विश्व चेतना का एक हिस्सा होता है जिसे अंतत: फिर उसी चेतना में विलीन हो जाना होता है, जहाँ वो सारे “तुम” भी अपनी अपनी यात्रा तय करके पहुंचे होते हैं.

इस यात्रा के किसी सियासी पड़ाव पर किसी “तुम” ने अपनी शिकायत दर्ज करवाई-

तुमआपका दायरा अब थोड़ा बड़ा हो गया है…. political view point से….. दिल में आई एक बात कह दूं? originally you were not like this. हम लोग जो ओशो की छैनी से तराशे हों, जहां भी पाँव रखेंगे अलग ही दिखेंगे… इतना विराट पाकर भी आपने झील को घड़े में क्यों भरा …yah leaning kya aapko bhi raas aati hai.

मैंओशो की ही आज्ञा का पालन कर रही हूँ… अभी बस इतना ही कहूंगी… उनसे सीधा संवाद होता है मेरा..

तुम I knew u as a brilliant individual with clarity, awareness and acceptance. मैं भी कह दूँ कि ओशो से मेरा संवाद हुआ, उसने कहा कि “जीवन”(माँ जीवन शैफाली) को कहो कि खुद की जानिब लौट आये अब…. मगर कहूँगा नहीं क्योंकि यह मेरी बात है ओशो की नहीं.

मैंलोग ओशो को पढ़ते हैं, मैं उनको जीती हूँ…

तुमजब मिला था उससे तो टीनएजर था आज 61 का हूँ…… मैंने अपनी ज़िन्दगी जीना ही चुना. इसमें कोई डिस्प्यूट नहीं कि हम सब उसको इतना आत्मसात कर लिए हैं कि उसको जीने के एहसास भी लिए हुए हैं.

मैंएहसास नहीं है यहाँ … स्वीकार है… वो आदेश देते हैं… मैं कहती हूँ जो हुक्म मेरे आका….

तुमकिसी भी वज़ह से हो यदि कुछ अच्छा हो पाये सेल्फ के लिए क्योंकि वही आखरी बात है. In all likelyhood i wud depart from earth earlier than you….. till then.
Love.
Take care.

मैं इस पूरे वार्तालाप में उनका उद्देश्य समझ पा रही थी, किसी सियासी दल का होने के मेरे चुनाव पर प्रश्न था, विशेषकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के प्रति विशेष आस्था के लिए अनकहा प्रश्न था…

प्रधानमंत्री मोदी के प्रति आस्था का अर्थ लगाया जाता है, कट्टर हिन्दू होना, किसी धर्म विशेष के विरोधी होना. और साथ ही आस्था को ‘भक्त’ होने का लांछन भी सहना होता है…

बावजूद इसके कि स्वयं हिन्दू बिरादरी मोदीजी से नाराज़ रहती है, उनकी सर्वधर्म सद्भावना के नारे से… बावजूद इसके कि वे खुद भी जानते हैं कि व्यक्ति के बाहरी व्यक्तित्व पर भले मज़हब का जामा पहना दो, उसकी आत्मा इन मजहबी सीमाओं से परे हैं…

मैं अपने “भक्त” होने के लांछन के साथ भी अपनी एक विश्व चेतना को भुला नहीं देती, वैसे ही मोदीजी “तुष्टिकरण” के लांछन के साथ भी “हिन्दू सनातन धर्म ” के वसुधैव कुटुम्बकम के सिद्धांत को कभी नहीं बिसराते.

एक लहर अन्दर होती है जो बाहर की बदलती लहरों के बाद भी एक समान रूप से बहती है, जिसे ज्ञानियों ने ‘स्थितप्रज्ञ’ कहा है… वहां आधार “धर्म” होता है, वास्तविक धर्म, मज़हब नहीं…

बाहरी लहरें कर्मों से बंधी होती हैं.. कई कर्म परिस्थितियों की मांग होते हैं, जो हो सकता है उस विशेष काल में आपके व्यक्तित्व के अनुरूप न हो… लेकिन उसके दूरगामी परिणाम सुनियोजित ढंग से व्यक्ति से संचालित करवाए जाते हैं….

इसलिए मेरी मोदी जी के प्रति आस्था का मतलब न तो कट्टर हिन्दू होना है, न ही किसी धर्म विशेष का विरोधी होना… लेकिन देश, काल और परिस्थिति के अनुसार मुझे कई बार कट्टरता की बर्बरता स्वीकार करने से भी परहेज़ नहीं, ना ही किसी मज़हब की कुरीतियों पर प्रहार करने से….

समय जब परिस्थितियों के अनुसार भूमिका बदलने की मांग करता है, तब हम ये नहीं कह सकते कि तुमने ही पहले कोमल ह्रदय बनाया था अब हम फौलाद कैसे हो जाएं. मेरा “मैं” कैसे बदल जाए…  बकौल “तुम” – किसी भी वज़ह से हो यदि कुछ अच्छा हो पाये सेल्फ के लिए क्योंकि वही आखरी बात है.

तो इस “सेल्फ” का, इस “मैं” का मानस माँ अमृता प्रीतम ने ओशो पर लिखी अपनी पुस्तक “मन मिर्ज़ा, तन साहिबाँ” में बहुत सुन्दर शब्दों में वर्णन किया है, जो उपरोक्त समस्त शंकाओं का समाधान है-

मज़हब और सियासत की तक़दीर एक सी होती है, क्योंकि यह दो बड़ी ताकतें हैं. एक आत्मा को शक्ति देने के लिए, दूसरी काया को. लेकिन दोनों तरफ सवाल व्यक्ति का है- “मैं” का.

सत्ता को भी एक सियासतदान के “मैं” से प्रवाहित होना होता है, वहां रुकना नहीं होता. रुक जाए, तो वहीं भंवर बनता है, और इतिहास का दामन खून से भीग जाता है….

रजनीश के पास कोई आया, कुछ घबराकर बैठा रहा, कुछ कहने की हिम्मत नहीं हो रही थी. फिर उनकी नज़र से हिम्मत बंधी, कहने लगा – “मैं संन्यास लेना चाहता हूँ, लेकिन एक मुश्किल है, मैं रिश्वत लेता हूँ, आदत हो चुकी है, छूटती नहीं, फिर संन्यास कैसे होगा?”

रजनीश कहने लगे – “कोई मुश्किल नहीं, तुम रिश्वत भी लेते रहो और संन्यास भी ले लो. संन्यास ले लोगे, तो भीतर से चेतना अंकुरित हो जाएगी. और जब चेतना फलित होगी, तो रिश्वत छूट जाएगी. तुम्हें छोड़नी नहीं पड़ेगी, वो खुद ही छूट जाएगी…”

उसी रोशनी में कहना चाहती हूँ कि आपका जो भी मज़हब है, उसकी आत्मा को पा लो. फिर जो ग़लत है. किसी दूसरे से जितनी भी नफरत है वो अपने आप छूट जाएगी, छोड़नी नहीं पड़ेगी, छूट जाएगी, और फिर राम भी अपना हो जाएगा, कृष्ण भी अपना हो जाएगा, मुहम्मद और नानक भी अपने हो जाएँगे….

और दुनिया के निज़ाम (व्यवस्था) के लिए आपने सियासत का जो भी रास्ता लिया है, उसकी चेतना को पा लो, फिर जो भी ग़लत है, किसी को ज़ेर करने की जितनी हवस है, वो अपने आप छूट जाएगी, फिर दूसरे बदन पर लगा हुआ ज़ख्म अपने बदन से रिसने लगेगा, दूसरे की पीड़ा अपनी हो जाएगी….

मसले बहुत बड़े हैं, लेकिन उन्हें तय कर पाने का सिर्फ नुक्ता है, बहुत छोटा-सा कि मज़हब और सियासत में व्यक्ति को परा व्यक्ति कोण पा लेनी होगी- ट्रांसपर्सनल डायमेंशन….

यह दो ताकतें भंवरमय भी हो सकती हैं- चेतनमय भी…

अगर एक पत्थर में किसी का ज़ख्म बनने की संभावना से लेकर हुनर का शाहकार बनने की, शिलालेख बनने की, वज्रासन बनने की और गारे हिरा बनने तक की संभावनाएं हो सकती हैं. यह लफ़्ज़ों की पकड़ में नहीं आ सकता….

तो मैं वो पत्थर ही हूँ, जिसे ओशो की छैनी से तराशा गया है… और मुझे पत्थर होते हुए भी किसी को ज़ख्म नहीं पहुँचाना है इस बात का ख़याल है, हुनर का शाहकार बनने की यात्रा पर हूँ, अपने शिलालेख मैं खुद तैयार कर रही हूँ…

और फिर उस विराट को पा लेने के बाद ही तो ख़याल पुख्ता हुआ कि प्यासे की प्यास बुझाने के लिए कभी कभी झील को घड़े में भरना पड़ता है…

और उस विराट में विलीन होने से पहले हम सब को अपने अपने “मैं” की यात्रा करना होती है… जो अमृता प्रीतम ने की, ओशो ने की, और मोदीजी भी कर रहे हैं, मैं भी कर रही हूँ… और “तुम” सब भी….  लेकिन बस इस ख़याल के साथ कि इन ताकतों को भंवरमय नहीं होने देंगे, चेतनमय ही रहेगी. ये मेरा वादा है.

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