WILD WILD COUNTRY: कहानी के पीछे की कहानी

ओशो इंटरनैशनल का प्रतिसंवेदन

Wild Wild Country
रजनीशपुरम: कहानी के पीछे की कहानी

“Wild Wild Country” हाल ही में छह-भागों में रिलीज़ की गई नेटफ्लिक्स डॉक्यूसरीज है जो दुनिया भर में ध्यान आकर्षित कर रही है। यह रहस्यवादी ओशो के सेंट्रल ओरेगन में जीने के वैकल्पिक ढंग के दर्शन से प्रेरित लोगों के समूह की कहानी की स्मृतियां हैं।

ये घटनाएं जीने के ढंग की एक नई विद्रोही दृष्टि और स्थापना के बीच एक राजनैतिक और आपराधिक टकराव को उकसाती हैं। दुर्भाग्य से, यह डॉक्यूसरीज इन सब घटनाओं के पीछे के प्रमुख पहलुओं को प्रकट करने में असफल साबित होती है और इसलिए कहानी के पीछे की वास्तविक कहानी का स्पष्ट विवरण नहीं देती।

अनिवार्य रूप से यह अमेरिकी सरकार की एक साजिश थी, जिसका निकृष्ट उद्देश्य व्हाइट हाउस के द्वारा ओशो के उस दर्शन को विफल करने का था जो जागरूक जीवन के आधार पर जीने वाले एक समुदाय का था।

‘फ्रीडम ऑफ़ इनफार्मेशन एक्ट’ के द्वारा बार–बार आवेदन के बाद ही सरकार द्वारा किए गए इन प्रयासों की हद/सीमा प्रकाश में आई है। व्हाइट हाउस की भागीदारी में राष्ट्रपति रीगन के अटॉर्नी जनरलएडविन मीज़, कांग्रेस में सीनेटरहैटफील्ड और ओरेगन के पैकवुड और सीनेटर डोल ऑफ कान्सास; Immigration and Naturalization Service (“INS”); सबसे वरिष्ठ अधिकारियों से लेकर स्थानीय जांचकर्ता, और राज्य के स्तर परओरेगन गवर्नर, अतियाहरिपब्लिक रॉबर्ट स्मिथओरेगन अटॉर्नी जनरलफरोमनमेयरओरेगन के अमेरिकी वकीलचार्ल्स टर्नरकई राज्य विधायक और कई अन्य शामिल थे।

इन राजनेताओं ने IRS, INS सहित सभी उपलब्ध सरकारी संस्था पर दबाव डाला, “उन लोगों से छुटकारा पाने के लिए” उन्होंने अपनी पूरी कोशिश की।

असहिष्णुता और धर्मनिरपेक्षता के माहौल की झलक डिस्ट्रिक्ट निर्देशक के मुख्य आईएनएस अन्वेषकथॉमस केसी की एक टिप्पणी सबसे अच्छी तरह से दर्शाती हैजिसमें उन्होंने कहा है: ओशो को “वेटबैक्स और अन्य संप्रदायों के लिए एक उदाहरण के रूप में हटाया जाएगा।”

यह आपसी सांठ-गांठ स्थानीय क्षत्रुता के चलते पहले ही दिन से ही अपनी पूर्ती करती थी, जो कि xenophobic quality(दूसरे देशों से आने वाले लोगों के प्रति नापसंदगी का गुण) की छवी थी, नए आगंतुकों को वे “केंसर” कहकर बुलाते थे साथ ही उन्होंने “भारत की ओर से” प्रेस की सलाह बता कर यह कहा कि “यदि आवश्यक होतो उन्हें मार डालो”।

मनगढ़ंत आधारों पर ओरेगन हाई डेज़र्ट में एक मॉडल शहर बनाने के प्रयासों को अवरुद्ध किया गया – उन में से एक आया – कि वह जगह एक “खेत” था जहां “किसी तरह का “कार्यालय” बनना गैर कानूनी था। क्योंकि उसको एक “शहर” का दर्जा नहीं मिला था तो  रजनीश समुदाय के निवासियों को जरूरी सेवाएं पाने के लिए न चाहते हुए भी उस संपत्ति को खरीदने के लिए बाध्य किया गया जो बहुत लंबे समय से एंटीलोप में बिक्री के लिए थी, वह एक छोटा सा “घोस्ट टाउन” था जो 19 मील दूर था और जिसमें मुख्यता 40 सेवानिवृत्त निवासी रहते थे। इसे उन्होंने एक “आक्रमण” कहा जिसे बाद में उन्होंने “उन्हें बाहर निकालने के लिए” अधिक से अधिक प्रयासों के औचित्य के लिए इस्तेमाल किया।

समुदाय के नष्ट हो जाने के बाद ही ओरेगन के सर्वोच्च न्यायालय ने पुष्टि की कि कोई भी अपनी आंखों से यह देख सकता है: यह भूमि किसी भी तरह से “खेत” नहीं थी। अदालत ने पुष्टि की कि भूमि केवल 9 गायों का पालन कर सकती है और शहर का मूल संस्थापन भी कानूनी था।

मुख्य अखबार, दी ओरेगोनियन, दी स्टेट्स’ की मुख्य खबर थी “Atiyeh picks Antelopers over interlopers.”बाकी की मीडिया भी इसी “निष्पक्ष और संतुलित” रिपोर्टिंग के अभाव में निचले स्तर पर गिर गई – इससे असहिष्णुता की आग और भड़क गई। बाद में ‘दी ओरेगोनियन’ ने समुदाय को नष्ट करने में अपनी भूमिका के बारे में खूब बढ़-चढ़ कर बतलाया।

अपने कानूनी विभाग के माध्यम से रजनीशपुरम के निवासियों ने सघन जीवन जीने के अपने मूल अधिकारों में इस कुरूप अनुचित हस्तक्षेप का विरोध किया।

एक महत्वपूर्ण क्षण आया जब शीला सिल्वरमैन ओशो से टूट गई। जैसा कि उसने डॉक्यूमेंट्री में कहा है कि उसने फैसला किया कि “He lost it” उसने ओशो का उतने ही रोष से विरोध किया, जितने रोष के साथ उसने समुदाय के अस्तित्व का बचाव करने की मांग की थी। ओशो, जो उस समय तीन साल से अधिक समय तक मौन में थे, तब उन्होंने सार्वजनिक रूप से फिर से बोलना शुरू कर दिया, उन्होंने उसके सारे प्रस्ताव/दृष्टिकोण का पूरी तरह से पर्दाफाश कर दिया जो उससे बिलकुल असंगत था जिसका प्रतिनिधित्व करने का दावा वह कर रही थी। लेकिन अब “वह अच्छी तरह जानती थी” कैसे ओशो के दृष्टिकोण पर अपना संस्करण लागू कर ले: अंत ने साधन को औचित्य दिया। वह क्रूर अपराधी करार हो गई, और फिर भाग गयी।

जैसा कि डॉक्यूमेंट्री में उल्लिखित हुआ, ओशो फिर उसके आपराधिक कृत्यों से अवगत हो गए और उन्होंने तुरंत एफबीआई को उसके अपराधों की जांच के लिए आमंत्रित किया।

वास्तविकता में उस जांच ने जांचकर्ताओं की अपराधीता को उजागर किया, वे केवल ओशो को बाहर निकलने में रुचि रखते थे ताकि वह शहर तितर-बितर हो जाए। ओशो तक पहुंचने के सिवाय उन्हें शीला के “बायोटैरिज्म” या “मास वायरटैपिंग” में कोई दिलचस्पी नहीं थी जब ऐसा नहीं हुआ, तो अधिकारियों ने ओशो को निकालने का एक और तरीका तलाशने का प्रयास किया, अंततः ओशो पर मुकदमा चलाने के लिए आव्रजन कानूनों का जानबूझकर गलत आवेदन किया।

सन 85 के पतझड़ में, ओशो को गिरफ्तार करने के लिए शहर पर हमले की अफवाहें फैल गईं। यह सार्वजनिक सूचना थी कि नेशनल गार्ड और कानून प्रवर्तन के अन्य स्तर चालु किए जा रहें हैं। ओशो के वकील द्वारा उनके खिलाफ किसी भी वारंट या आरोपों को उठाने के प्रयासों को दबाया जा रहा था। चार्ल्स टर्नर, अमेरिकी वकील, यह भी स्वीकार नहीं कर रहा था कि उन पर कोई वारंट या अभियोग था और यहां तक कि ओशो को स्वेच्छा से आत्मसमर्पण करने की अनुमति देने से इनकार कर दिया गया।

लंबित हिंसा वातावरण में स्पष्ट थी। बाद में यह पता चला कि नेशनल गार्ड ने पहले ही अपने हेलीकाप्टरों पर मशीनगनें जमा कर ली थी! ओरेगन अपने ही “वाको” की योजना बनाते हुए प्रतीत हो रहे थे!

ओशो ने एक झटके में हिंसा का खतरा कम कर दिया: उस समय जो लोग उनके आस-पास थे, उनकी सलाह पर उन्होंने चले जाना स्वीकार किया। वह पूरे देश की लंबी यात्रा पर रजनीशपुरम से निकल गए। रजनीशपुरम से उनका प्रस्थान अधिकारियों के लिए एक उपहार था, जिन्होंने दावा किया था कि वे गिरफ्तारी वारंट से “भाग गए” जो कि कभी था ही नहीं। FFA के साथ फ़्लाइट की प्लानिंग करते समय, सबसे लम्बा मार्ग लेते हुए अमरीका के पार “भाग गए”? जब कि कनाडा केवल 20 मिनट की दूरी पर था।

इस कदम ने रजनीशपुरम में किसी भी तरह की हिंसा से बचा लिया लेकिन इसका मतलब था कि हिंसा का निशाना अब ओशो थे। उन पर उत्तरी कैरोलिना के चार्लोट के हवाई अड्डे में हमला किया गया, जहां वह अपने वकीलों द्वारा समर्पण के लिए वार्ता के पूरा होने की प्रतीक्षा में थे। उन्होंने उन्हें जंजीरों में डाल दिया, उन्हें 12 दिनों तक अमरीका की अलग-अलग छह जेलों में घसीटा गया, इस प्रक्रिया में उनके स्वास्थ्य को स्थायी रूप से नुकसान पहुंचा। ओशो को अमेरिका छोड़ने के लिए मजबूर करने के लिए यह अमरीकी सरकार की एक रणनीति थी।

ओशो के नाजुक स्वास्थ्य पर हमले से बचने के लिए उनका अपने वकील को अमेरिका छोड़ने का सौदा करने की अनुमति देना आवश्यक था, इसके साथ-साथ उनके ऊपर लगे सभी आरोपों को लेकर उनकी बेगुनाही को भी बरकरार रखना था।

पूर्व सहायक अमेरिकी अटॉर्नी के रूप में, रॉबर्ट वीवर ने कहा, “मुझे लगता है कि वे (वरिष्ठ अधिकारी) चाहते थे कि हम उनके लिए ये गंदे काम करें … राजनीतिक रूप से यह एक कठिन मामला था।” अमेरिकी अटार्नी और गवर्नर अतियाह ने स्वीकार किया कि वहां ओशो के खिलाफ शीला के साथ अपराधों में मिलीभगत के लिए कोई सबूत नहीं था।

अंत में शीला को अपने अपराधों के लिए एक करारा थप्पड़ मिला, जिसने “अमरीका की महानतम बायोटेररिस्ट घटना” को अंतहीन रूप से दोहराने का मार्ग दिया जो आज के दिन तक ओशो और उसके लोगों को अपने निशाने पर लिए हुए है। कोई भी नहीं पूछता है कि अगर यह इतना भयानक था, तो शीला को केवल 39 महीने बाद “अच्छे व्यवहार” के लिए जेल से बाहर जाने की अनुमति क्यों दी गयी, जबकि उसके किसी भी संघीय अपराधों पर कोई कार्यवाही तक नहीं की गयी।

सोचने वाली बात है कि क्या ओशो आज भी अपनी जेल की सजा नहीं दे रहे होते अगर शीला के साथ अपराधों में उनकी मिलीभगत होने के सबूतों का सुराग होता।

संक्षेप में एक यह कहा जा सकता है कि यहां एक भारतीय आदमी था, जो एक ख़ास पोशाक और एक असामान्य टोपी पहनता था, जिसके पास फैंसी विदेशी कारों की लम्बी कतार थी, जिन्हें वह अपने संस्कृत के नाम वाले शहर भर में चलाता था, जहां हर कोई लाल रंग पहना था, जहां कोई पैसे के लिए नहीं बल्कि ध्यान पर आधारित दुनिया के दृष्टिकोण के प्रेम में डूब कर काम करता था, जहां परिवार, निजी संपत्ति या किसी भी धर्म के लिए कोई समर्थन नहीं था, और जहां हर कोई शाकाहारी था – ठीक ‘लाल-गर्दन वाले काओबॉय देश’ के बीच!

 

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